पृथ्वीराज : आप में दम है तो आप फ़िल्म को देख लें

हरिओम राजोरिया

आज बेटी चुनमुन के साथ पृथ्वीराज फ़िल्म देखने गया था । हम बालकनी में सात-आठ लोग ही बैठे थे । इस फ़िल्म पर बहुत लोगों के विचार पढ़ चुका हूँ इसलिये मेरी भी इच्छा हुई कि उस नायक की इस फ़िल्म को देखूँ जिसने माननीय प्रधानमंत्री जी से साक्षात्कार में पूछा था कि आप आम चूसकर खाते हैं या काटकर ?

हमारे कस्बे में पहले दो टॉकीज थे – एक फट्टा ( विनीत ) टॉकीज और दूसरा अच्छा ( विवेक ) टॉकीज । फट्टा टॉकीज़ के पास खोने के लिए कुछ नहीं था , जान पर खेलकर वो नई-नई फिल्में लगाता रहता था और बहुत जल्द ही इच्छामृत्यु को प्राप्त हो गया था । फिर एक ही टॉकीज बचा था और उसमें जो भी लगता था , मजबूरी में हमे देखना ही पड़ता था । एक समय ऐसा भी आया जब कॉलेज के वक़्त ट्यूशन से इतने रुपये कमाने लगा कि सिगरेट और सिनेमा की ज़रूरत पुरी हो सके , तब कुछ समय प्रतिदिन फ़िल्म देखने जाया करता था । उसी दरम्यान धर्मेंद्र की प्रोफेसर प्यारेलाल मैंने सत्रह बार देखी थी । घटिया फिल्में देखने का पर्याप्त संयम किशोरावस्था में ही मैंने अर्जित कर लिया था । इसलिए पृथ्वीराज जैसी फ़िल्म देखने का साहस भी जुटा पाया और अपनी बेटी को भी साथ में ले गया कि जीवन में हमने इतनी मूर्खताएँ की हैँ तो तुम भी कुछ छुटपुट करके देखो ।

परसाई जी कहा करते थे कि मूर्खता शाश्वत है , वह मर – मर कर फिर- फिर जी उठती है । मूर्खता का क्षय नहीं होता , वह अक्षय है ।

जब आप निर्लज्जता के साथ भांड होने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैँ तब आपको अपने ज्ञान को खूंटी पर टांगना पड़ता है , आपके पास झूठ ही एक सहारा बचता है । निर्देशक ने यह फ़िल्म इसी स्वीकार भाव के साथ बनाई है । जो लोग युद्ध मे निपुण होते थे , उनके शरीर लचीले होते थे पर इस फ़िल्म के सारे राजा अधेड़ हैं । इस फ़िल्म का जयचंद गुस्से में दौड़ता है तो उसकी भारी देह चुगली करने लगती है । जब मुख्य गायक ही कनसुरा हो तो संगतकार कितने भी दक्ष क्यों न हों अच्छी गम्मत सम्भव नहीं है । पूरी फिल्म में हिन्दू हों या मुसलमान सब राजा ही राजा हैं , सिंहासन है , दरवारी हैं पर जनता कहीं नहीं है । राजा जनता के अधिकारों के लिए नहीं धर्म के लिए मर रहे हैं । स्त्री ( रानी ) अधिकारों की खूब लफ्फाजी की गई है पर निर्देशक की पुरुषवादी समझ उसे वीरांगना का फर्जी दर्जा देकर अंततः अग्निकुण्ड में जलाती है । सत्ता पोषित कला और कलाकार किस तरह और कैसा काम करते हैं यह फ़िल्म उसका सबसे सुन्दर नमूना है ।

इस फ़िल्म के गीतकार कोई वरुण ग्रोवर हैं जिन्होंने कुल जमा तीस चालीस संस्कृतनिष्ठ शब्दो में ( जैसे मोहन , अर्जुन, दसानन , भीष्म , बलराम , रक्त , वीर .. आदि ) गीत लिख मारे हैं इस गौरव गान टाइप गीतों को सुनते हुए ऐसा लगता है कि टीन के डिब्बे में सिक्कों की तरह शब्द भरे हैं और कोई उस डिब्बे को ज़ोर ज़ोर से बजा रहा हो ।

आप में दम है तो आप भी इस फ़िल्म को देख लें ।

India Edge News Desk

Follow the latest breaking news and developments from Chhattisgarh , Madhya Pradesh , India and around the world with India Edge News newsdesk. From politics and policies to the economy and the environment, from local issues to national events and global affairs, we've got you covered.
Back to top button