श्रीरामचरितमानस में शिव-पार्वती विवाह प्रसंग

डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं।।
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड १०४-३
दो.- संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड दोहा
श्रीराम एवं शिवजी का आपस में एक-दूसरे के प्रति घनिष्ठ प्रेम-भक्ति-श्रद्धा जगत् प्रसिद्ध है। शिवजी श्रीरामकथा श्रवण करने हेतु महर्षि अगस्त्य के आश्रम गए तथा सतीजी सहित श्रीरामकथा का श्रवण किया। सतीजी शिवजी के समझाने के उपरान्त श्रीराम के चरित्र एवं उनकी लीलाओं को पहिचान नहीं सकी। अंत में उनकी परीक्षा लेने चली गई। श्रीरामजी की लीला-परीक्षा लेकर लौट आईं। सतीजी ने शिवजी से परीक्षा की बात बताई नहीं। शिवजी ने ध्यान लगने पर सब जान लिया। सतीजी द्वारा सीताजी का रूप धारण करने के कारण शिवजी को उन्हें त्यागना पड़ा। तत्पश्चात् दक्ष प्रजापति जो कि सतीजी के पिता थे वहाँ शिवजी का यज्ञ में भाग न होने से योगाग्नि में शरीर भस्म कर दिया।
सतीं मरत हरि सन बरू मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा।।
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ६५-३
सतीजी ने मरते समय भगवान् श्रीहरि से यह वर माँगा कि उनका जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती (गौरी-उमा) के रूप में जन्म लिया। श्रीरामकथा में श्रीराम-विवाह का अत्यन्त सुन्दर वर्णन है। अत: उनके इष्ट देव शिवजी के विवाहोत्सव का आनन्द भी होना आवश्यक है। अत: नई पीढ़ी एवं सुधीजनों के लिए शिव-पार्वती विवाह का कथा प्रसंग दिया जा रहा है।
जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धी संपति तहँ छाईं।
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ६५-४
जब से उमाजी हिमालय के घर जन्मी तब से वहाँ सारी सिद्धियाँ एवं सम्पत्तियाँ छा गईं। मुनियों ने भी जहाँ-तहाँ सुन्दर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए। उस सुन्दर पर्वत पर अनेक प्रकार के वृक्ष सदा पुष्प फलयुक्त हो गए। सारी नदियों में पवित्र जल बहने लगा और पशु-पक्षी, भ्रमर सभी सुखी हो गए। सभी जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर (शत्रुता) त्याग दी और पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करने लग गए।
जिस प्रकार श्रीराम की भक्ति को प्राप्त कर भक्त शोभायमान हो जाता है, उसी प्रकार पार्वतीजी के हिमाचल के घर आ जाने से पर्वतराज शोभायमान हो गए। नारदजी ने जब उमा के जन्म का समाचार सुना तो वे एकाएक हिमाचल के घर पधार गए। हिमाचल ने उनका आदर-सम्मान किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया। हिमाचल ने पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों में डाल दिया। हिमाचल ने कहा- हे मुनीश्वर! आप त्रिकालदर्शी और सर्वज्ञ है। अत: आप हृदय में विचारकर कन्या के गुण-दोष बताइए। नारदजी ने हँसकर बड़े ही रहस्यपूर्ण कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी यह कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी इनके नाम हैं। यह अपने पति को सदैव प्यारी (प्रिया) रहेगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इसके माता-पिता यशस्वी होंगे।
अब इसमें जो दो चार अवगुण हैं उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिता विहीन, उदासी, संशयहीन (चिन्ता न करने वाला) वह होगा।
दो.- जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल वेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दो. ६७
योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेषवाला ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा है।
नारदजी की वाणी सुनकर हिमवान् और मैना को दु:ख हुआ तो दूसरी ओर पार्वती प्रसन्न हो रही थी। नारदजी ने यह सब कहा किन्तु इस रहस्य को जान नहीं पाए। देवर्षि नारद के वचन असत्य नहीं हो सकते यह जानकर पार्वतीजी ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया। उमाजी को शिवजी के चरणकमलों में प्रेम उत्पन्न हो गया। देवर्षि नारदजी की भविष्यवाणी असत्य न होगी, यह विचार कर हिमवान्, मैना और सभी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगी। पर्वतराज हिमवान् ने देवर्षि नारदजी से कहा- हे नाथ कहिये अब क्या उपाय किया जाए।
दो.- कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेट निहार।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दो. ६८
मुनीश्वर नारदजी ने कहा- हे हिमवान सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि इनमें से कोई भी मिटा सकते हैं। नारदजी ने कहा उन्होंने जो दोष बतलाए हैं, उनके अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि उमा का विवाह शिवजी के साथ हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान कहेंगे। जैसे विष्णु भगवान शेष नाग की शय्या पर सोते हैं तो भी पंडित उनको कोई दोषारोपण नहीं करते हैं। इसी प्रकार सूर्य एवं अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं किन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता है।
शिवजी सहज ही समर्थ हैं क्योंकि वे भगवान् हैं। महादेव हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार का कल्याण है। महादेवजी की आराधना बहुत कठिन है किन्तु तप करने से वे बहुत शीघ्र प्रसन्न और सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो त्रिपुरारी महादेवजी इस होनहार को मिटा सकते हैं। इस कन्या के लिए शिवजी को छोड़कर दूसरा कोई वर नहीं है। इतना कहकर नारदजी ने पार्वतीजी को आशीर्वाद दिया तथा ब्रह्मलोक चले गए। पति को एकान्त में ले जाकर मैना ने कहा- हे नाथ मैंने मुनि (नारदजी) के वचनों का अर्थ नहीं समझा। अत: आप जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो विवाह कीजिए। यदि पार्वती के लिए योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बात को दृष्टिगत रखते हुए ही विवाह कीजिएगा, ताकि हमें बाद में हृदय में संताप न हो। इस प्रकार इतना कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ी। तब हिमवान् ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए किन्तु नारदजी के वचन असत्य नहीं हो सकते हैं।
हिमवान् ने मैना से कहा कि अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है तो जाकर उसे यह समझाओ कि वह ऐसा तप करें कि जिससे उसे शिवजी मिल जाए। पार्वती ने माँ से कहा- तुम सुनो मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुन्दर गौर वर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है कि हे पार्वती! नारदजी ने जो कुछ कहा है उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। तप सुख देने वाला और दु:ख दोष नाश करने वाला होता है।
यह बात सुनकर माता को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने हिमवान् को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया। माता-पिता को अच्छी तरह समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वती तप करने चली गई।
शिवजी के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगी। उनका मन तप में ऐसा लगा कि वह अपने शरीर की सारी सुध-बुध भूल गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए। फिर सौ वर्ष तक साग खाकर बिताए। कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए। जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया।
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना।।
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्म गिरा मै गगन गभीरा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ७४-४
फिर सूखे पत्ते भी खाना छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम अपर्णा हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से ब्रह्मवाणी हुई।
दो. भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारी।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड दो. ७४
हे पर्वतराज की कुमारी। सुन तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे। जब तेरे पिता बुलाने आए तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिले तब इस वाणी को सत्य समझना।
सतीजी के शरीर त्याग देने के बाद शिवजी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया तथा वे सदा श्रीराम नाम का जप करने लगे और यहाँ वहाँ श्रीराम के गुणों की कथाएँ सुनने लगे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया तथा श्रीराम प्रकट हुए। श्रीराम ने अनेक प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वती के जन्म होने का सुनाया। ततपश्चात् श्रीराम ने शिवजी से कहा कि यदि मुझ पर आपका स्नेह है तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगे (विश्वास) दीजिए कि आप जाकर पार्वतीजी के साथ विवाह कर लें।
शिवजी ने कहा कि यद्यपि ऐसा उचित नहीं परन्तु माता-पिता गुरु और स्वामी की बात को बिना विचारे शुभ समझकर कहना मानना चाहिए। आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है। श्रीराम अन्तर्धान हो गए। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए। शिवजी ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे- आप लोग पार्वतीजी के पास जाकर उनसे प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर पार्वती को घर भिजवाइए। उनके सन्देह को दूर कीजिए। सप्तर्षि ने पार्वतीजी से कहा कि नारद का उपदेश से आज तक किसका घर बसा है? जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं वे घर बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। नारदजी के वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला आदि है। ऐसे वर के मिलने से कहो तुम्हें क्या सुख मिलेगा। अन्त में पार्वतीजी ने सप्तर्षि से कहा कि मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोडूंगी। चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती हूँ। शिवजी के प्रति पार्वतीजी का अटूट प्रेम-श्रद्धा-विश्वास देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी। हे भवानी! आपकी जय हो- जय हो आप दोनों (शिव-पार्वती) समस्त जगत के माता-पिता हैं।
मुनियों ने जाकर हिमवान् को पार्वती के पास भेजा और वे उनको घर ले गए। पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि भी प्रसन्न होकर ब्रह्मलोक चले गए। शिवजी ने मन को स्थिर किया तथा श्री रघुनाथ जी के ध्यान में मग्न हो गए। उसी समय तारक नामक एक असुर हुआ। जिसने सभी लोक और लोकपालों को जीत लिया। देवतागण उससे युद्ध में पराजित हो गए तब वे सब ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा कि तारकासुर की मृत्यु तब होगी, जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इस दैत्य को वही युद्ध में जीतेगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है। पार्वतीजी ने शिवजी को पति बनाने के लिए कठिन तप किया है। इधर शिवजी सब छोड़-छाड़ कर समाधि लगाकर बैठे हैं। तुम सब जाकर कामदेव को शिवजी की समाधि भंग करने के लिए तैयार करो। कामदेव को किसी तरह तैयार कर शिवजी के समीप भेजा। कामदेव सिर नवाकर शिवजी के निकट पहुँचा। उसके प्रभाव से ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई। सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि भंग हो गई और वे जाग गए। शिवजी के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने नेत्र खोलकर चारों ओर देखा तब आम के वृक्ष के पत्तों में छिपे कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। शिवजी ने उस समय तीसरा नेत्र खोला, तब उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्मसात् हो गया।
कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही रोती चिल्लाती हुई शिवजी के पास गई। अत्यन्त ही प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर शिवजी के पास जाकर खड़ी हो गई। शिवजी शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले देवता हैं रति को देखकर बोले हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना शरीर के सबको व्यापेगा। आगे अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन, जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्रीकृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र प्रद्युम्न के रूप में उत्पन्न होगा। इसके बाद देवतागण, ब्रह्मा, विष्णु सहित शिवजी के पास गए। शिवजी ने उनसे पूछा आप सब किसलिए मेरे पास आए हैं? तब ब्रह्माजी ने कहा हे प्रभो। आप अन्तर्यामी हैं तथापि भक्तिवश मैं आपसे निवेदन करता हूँ। हे शंकर! सब देवतागण अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं। पार्वतीजी ने अपार तप किया है अब उन्हें अंगीकार कीजिए। ब्रह्माजी की बात सुनकर और श्रीराम के वचनों को स्मरण करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- ऐसा ही हो। देवताओं ने नगाड़े बजाए और पुष्पों की वर्षा करके जय हो, जय हो कहा।
उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरन्त उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले पार्वतीजी से मिले तथा कामदेव के भस्म होने का बताया। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए। फिर हिमाचल के पास गए। उन्होंने पर्वतराज हिमालय को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दु:खी हुए तत्पश्चात् मुनियों ने रति को दिए गए शिवजी द्वारा वरदान को बताया। यह सब सुनकर अन्त में हिमवान् को बहुत सुख प्राप्त हुआ। हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी दिखाकर लग्न निश्चय कराकर लग्न पत्रिका सप्तर्षि को दे दी और चरण पकड़कर विनती की। सप्तर्षि ने पत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम और प्रसन्नता समा नहीं रही थी। ब्रह्माजी ने वह लग्न पढ़कर सबको सुनाया। उसे सुनकर आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। बाजे बजने लगे।
शिवजी के गणों ने शिवजी का शृंगार किया। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मोर सजाया। शिवजी ने साँपों के ही कुण्डल और कंकण पहने, शरीर पर भस्म रमाई और वस्त्र के स्थान पर बाघम्बर लपेट लिया। शिवजी के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का ही यज्ञोपवीत, गले में विष, छाती पर नर मुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं।
कर त्रिशुल अरु डमरू बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा।।
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जगनाहीं।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ९२-३
एक हाथ में शिवजी के त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू शोभा दे रहा है। शिवजी वृषभ (बैल) पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्करा रही है। वे कहती हैं इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं हैं।
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर बारात में चले। तब विष्णु भगवान् ने सब दिगपालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर बरात में चले। हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराये नगर में जाकर हँसी कराओगे। विष्णु भगवान की यह बात सुनकर देवता मुसकाये और वे अपनी अपनी सेना सहित अलग हो गए। शिवजी यह देखकर मन ही मन हँसने लगे कि विष्णु भगवान् के व्यंग्य वचन नहीं छूटते हैं। अपने प्रिय विष्णु भगवान के इन अतिप्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया।
शिवजी की बरात में कोई बिना मुख का है तो किसी के अनेक मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है। कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए थे। किसी के हाथ में कपाल और सबके सब शरीर में ताजा रक्त लपेटे हुए थे। उनके मुख, गधे, कुत्ते, सुअर और सियार के समान थे। अनेक प्रकार के प्रेत-पिशाच और योगिनियों की जमातें थीं। उनका वर्णन करते नहीं बनता। भूत-प्रेत नाचते और गा रहे थे। वे सब बड़े ही मनमौजी थे। जैसा दूल्हा, अब वैसी बरात बन गई। हिमालय ने बड़ा विचित्र मण्डप बनाया जो कि अवर्णनीय था। नगर की सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्माजी की रचना-कुशलता भी तुच्छ लग रही थी।
बरात के स्वागत करने के लिए लोग अनेक प्रकार का शृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित लेने गए। देवताओं के साथ विष्णु भगवान् को देखकर वे सब प्रसन्न हुए किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन हाथी, घोड़े रथ के बैल आदि डर कर भाग चले। बालक यह सब देखकर प्राण बचाकर अपने-अपने घर भाग चले। माता-पिता के पूछने पर भय से काँपने लग गए। वे बालक बोलें यह बरात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उनके गहने हैं। बड़े-बूढ़ों ने हँसते हुए शिवजी के समाज को समझकर बच्चों को कहा कि निडर हो जाओ डर की कोई बात नहीं है। बरात को जनवासे में ठहरा दिया गया। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाकर अनेकों स्त्रियों के साथ मंगलगीत गाने लगी। मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब उन्होंने शिवजी को भयानक वेष में देखा तब उनके साथ सभी स्त्रियों के मन में भय उत्पन्न हो गया। शिवजी जनवासा में वहाँ से चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दु:ख हुआ तथा उन्होंने पार्वती को अपने पास बुला लिया। मैना ने पार्वती को गोद में बैठा लिया तथा उनके नेत्रों में आँसू भर गए। मैना ने कहा- जिस विधाता ने तुमको सुन्दरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला क्यों बनाया? मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर जाऊँगी, अग्नि में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद जाऊँगी चाहे घर उजड़ जाए और संसारभर में अपकीर्ति फैल जाए, किन्तु मैं जीते जी इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी। मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था कि उन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया।
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिवेक मृदुबानी।।
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरई जो रचइ बिधाता।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ९७-३
माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल, वाणी बोली- हे माता जो विधाता रच देते हैं वह टलता नहीं, ऐसा सोच विचार कर तुम दु:खी मत हो तथा कुछ सोच मत करो।
उसी समय यह समाचार सुनकर हिमालय नारदजी और सप्तर्षि को साथ लेकर वहाँ पहुँच गए। तब नारदजी ने पार्वतीजी के पूर्व जन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया। पहले ये दक्ष के घर जन्मी थी, तब इनका नाम सती था। ये शंकरजी से ब्याही गई थी। इन्होंने श्रीराम को देखा तथा इन्हें मोह हो गया, जिससे इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का रूप धारण कर लिया था। उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर योगाग्नि से भस्म हो गई। अब इन्होंने तुम्हारे घर में जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है। ऐसा जानकर सन्देह त्याग दो, पार्वती तो सदा ही शिवजी की अर्द्धांगिनी है।
नारदजी की सारी बातें सुनकर सबका दु:ख समाप्त हो गया तथा यह बात पूरे नगर में घर-घर में फैल गई। पाक शास्त्र में जैसा विधि है उसके अनुसार अनेक प्रकार से ज्योनार (रसोई) बनाई गई। तत्पश्चात् हिमाचल ने आदरपूर्वक सभी बरातियों को विष्णु, ब्रह्मा, और सब देवताओं को बुलवाया। भोजन करने वालों की बहुत सी पंगतें बैठी। चतुर रसोईयों ने भोजन परोसा। स्त्रियों की मण्डलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमलवाणी से व्यंग्यात्मक गीत गाने लगी। भोजन हो जाने के उपरान्त सबके हाथ मुँह धुलवाकर पान दिए गए। तदनन्तर सब लोग जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए। मुनियों ने लौटकर हिमवान् को लग्न पत्रिका (लगन) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा। सब देवताओं को आदरसहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई तथा स्त्रियाँ श्रेष्ठ मधुर-मधुर मंगल गीत गाने लगी। ब्राह्मणों को सिर नवाकर हृदय में अपने प्रिय स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके, ब्रह्माजी द्वारा निर्मित सिंहासन पर शिवजी बैठ गए। यह सब देखकर मुनियों ने पार्वतीजी को बुलाया। संखियाँ शृंगार करके उन्हें ले आई। पार्वतीजी की सुन्दरता देखकर सब देवता मोहित हो गए। पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है। मुनियों ने वह सभी रीति करवाई। नगाधिराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिव पत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण कर दिया। जब शिवजी ने पार्वती का पाणिग्रहण किया तब इन्द्रादि सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी की जयजयकार करने लगे। आकाश से नाना प्रकार के पुष्पों की वर्षा हुई। शिव पार्वती विवाह सम्पन्न हो गया। सारा ब्रह्माण्ड आनन्द से ओत प्रोत हो गया।

India Edge News Desk

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