बंद करे सरकार इतिहास से छेड़छाड़

रघु ठाकुर

भारत सरकार ने हाल ही में एन.सी.ई.आर.टी. (नेशनल कौंसिल आॅफ एजुकेशन एण्ड टैक्सट्) के द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रमों और पाठ्य पुस्तकों में बदलाव किए हैं तथा कुछ पुस्तकों के अंशों को पुनः प्रकाशित करने पर रोक लगा दी है। इसमें कोई दो राय नहीं है जो पाठ्यक्रम और पुस्तकें पिछले केन्द्र सरकार के याने कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में पाठ्यक्रमों में समाविष्ठ की गई थी या उनके कुछ अंश पाठ्यक्रमों में शामिल किए गए थे तत्कालीन सरकार के विचारों और एजेण्डों को पूरा करने व उनके प्रिय छात्रों को प्रचारित करने के लिये थे परन्तु कुछ ऐसे भी विषय या लेखक और पुस्तकें थी जो राष्ट्रीय दृष्टीकोण से छात्रों को पठनीय थी।

हाल ही में जिन-जिन विषयों से संबंधित लेख आदि हटाए गए थे, उनमें से एक है विविधता, दूसरा है प्रजातंत्र, तीसरा है नाॅन एलाइनमेंट तात्पर्य गुट निरपेक्षता, और चैथा है तटस्थता का सिद्धान्त, पाँचवां है जन संघर्ष और जन आँदोलन, छटवाँ है लोकतंत्र के लिए चुनौतियाँ।

जहाँ तक पहला मुद्दा है विविधता और लोकतंत्र यह विषय छात्रों के लिए उपयोगी विषय हैं। भारत देश एक ऐसा देश है जिसमें अनेकों धर्म क्षेत्रीय या प्रांतीय भाषायें रहन-सहन खान-पान के तरीके परंपराएं हैं। इनके विकास की अपनी-अपनी ऐतिहासिक भौगोलिक और राजनैतिक पृष्ठभूमि है। राष्ट्रीय एकता और इन विविधताओं के बीच कोई टकराव न है और न होना चाहिए। दरअसल टकराव तो तब होता है जब मजहब या परंपराएं भाषा और जीवनशैली कट्टरता का रूप लेती है और एकाधिकारवादी हो जाती है। मेरा ये कहना नहीं है कि मजहबी या अन्य परंपराओं में बदलाव नहीं होना चाहिए बल्कि में इस राय का हूँ कि धर्म या परंपराओं के नाम पर जो बीता अतीत है उसमें जो प्रतिगामी या कालबाह्य परंपराएं तरीके या त्रुटियां रहीं हैं उन्हें स्वतः धार्मिक समूहों को बदलने के लिए आगे आना चाहिए जो उन्हें मानने वाले है। एक जमाने में सती प्रथा या जौहर की परंपरा हमारे देश में प्रचलित थी। और अठारवीं सदी में स्वतः हिन्दू समाज के बीच से इन परंपराओं को बंद करने और उसके लिए कानून बनाने की माँग उठी। जिसका परिणाम इन कुरीतियों को रोकने के रूप में सामने आया। परन्तु कुरीतियां विविधतायें नहीं है और विविधताएं कुरीतियाँ नहीं है। विविधतायें तो बरसों और सदियों के संचित ज्ञान एवं अनुभवों से प्राप्त समूह विशेष की जीवन शैली या परंपरायें है। जिनमें क्षेत्रीय आवश्यकताएं भाषा का विकास आदि शामिल हैं। बंगाल में मछली का खाना आम है क्योंकि वहां विशेषतः समुंद्र तट पर सब्जियाँ आदि नहीं होती थीं। पहाड़ी क्षेत्र में भी अनाज एवं सब्जियाँ ज्यादा नहीं होती थी अतः वहाँ के लगभग सभी धर्माें के लोग माँसाहारी थे और वह उनकी स्थानीय उपलब्धता व भौगोलिक आवश्यकता के आधार पर था। राहुल सांकृत्यायन जो स्वतः ब्राह्मण थे ने अपने यात्रा वृतांतों में न केवल पहाड़ों में बल्कि मंदिरों व मठों में भी माँसाहार का जिक्र किया है। उनके अनुसार उस समय के मठों में भी ठंड के दिनों में माँसाहार का जिक्र किया गया, और उससे कोई हिन्दू धर्म को हानि नहीं होती थी।

उत्तर भारत के हिंदी वासी लोगों में जहाँ समाज कृषि प्रधान था वहाँ माँसाहार की परंपरा आमतौर पर नहीं थी। यद्यपि राजे महाराजे और सामंत अमूमन मांसाहारी रहे हैं। किस को क्या खाना है, क्या नहीं खाना है यह व्यक्ति की अपनी आजादी है? हाँ इतना अवश्य है कि व्यक्ति की आजादी का उपयोग, किसी दूसरे समूह को छेड़़ने या अपमानित करने के लिए नहीं होना चाहिए। विविधताएं समाज में और देश में सहनशीलता और समन्वय का विचार और भाव भी पैदा करती है। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है। जब देश विविधताओं के साथ जीना सीखता है। विविधताएं न केवल धार्मिक सामाजिक या भाषाई होती है, बल्कि वे परिवार के सदस्यों में भी हेाती है। दरअसल विविधता का सिद्धांत न केवल भारत के अतीत की परंपराओं का निष्कर्ष है बल्कि यह तो ‘‘माँ’’ का कर्म से दिया हुआ संदेश है। जिस प्रकार माँ अपने बच्चों की विविध रूचियों में समन्वय स्थापित कर परिवार को एकजुट रखती है, उसी प्रकार राष्ट्र और निर्वाचित सरकारों का जनता से संबंध होना चाहिए। इस अर्थ में भारतीय संविधान भी एक मानवीय रूप है। लोकतंत्र की व्याख्या, मर्यादा, कर्तव्य आदि को लेकर मतभिन्नताएं और भिन्न-भिन्न व्याख्याएं हो सकती हैं, परंतु इससे कौन इंकार कर सकता है कि लगभग 500 रजवाड़ों या रियासतों को एक जुट कर एक देश के रूप में प्रस्तुत करने का काम लोकतंत्र के माध्यम से ही हुआ है या हो सका है जब तक रियासतें थी देश की कल्पना भी नहीं थी और इसीलिये देश कमजोर था परंतु महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आजादी और उसके बाद लोकतंत्र के कारण ही आज भारत न केवल विदेशी साम्राज्यवाद से मुक्त हुआ है, बल्कि दुनिया में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में सामने आया है। राष्ट्रीयता या राष्ट्र भक्ति की कसौटी माँसाहार या शाकाहारी न थी न हो सकती है, बल्कि एक व्यक्ति अपने समाज और राष्ट्र को कितनी कुर्बानी करने को तैयार है, कैसे ‘‘जियो और जीने दो’’ के सिद्धांत को अमली रूप देने को तैयार है वही कसौटी है। गुट निरपेक्षता का सिद्धांत 1950 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी सरकार के लक्ष्य के तौर पर प्रतिपादित किया था। हालांकि इसकी भी ऐतिहासिक जड़ें 19वीं सदी के आरंभ में मिलती हैं, जब स्व. डाॅ. राम मनोहर लोहिया आजादी के पहले की कांग्रेस के विदेश सचिव थे और उन्होंने जिस विदेश नीति के सिद्धांत गढ़े व दस्तावेज़ तैयार किए थे उनमें ही गुट निरपेक्षता शामिल थी। जिसे आजादी के बाद नेहरू सरकार ने अपनी नीति बनाया। तटस्थता का सिद्धांत अवश्य ही तार्किक व न्याय संगत नहीं है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र न्याय या अन्याय अच्छाई या बुराई के प्रति तटस्थ नहीं रह सकता। और वह अगर तटस्थ रहता है तो अन्याय का मूक सहभागी जैसा बन जाता है। यह अवश्य है कि राष्ट्र के द्वारा अन्याय या ज्यादती का विरोध कितना सक्रिय हो या शाब्दिक हो उसकी सीमा क्या हो यह निर्णय राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। परंतु अपना मत या पक्ष तो दर्ज करना ही चाहिए। मसलन यूक्रेन के सवाल पर भारत को रूसी हमले का सैद्धांतिक विरोध तो करना ही चाहिए था। इन विषयों को एन.सी.ई.आर.टी. की विषय सूची से हटाना आम विद्यार्थियों सामयिक ऐतिहासिक और तथ्यात्मक ज्ञान से वंचित करना है। एन.सी.ई.आर.टी की किताबों से जन सत्याग्रह को भी हटाया गया है। मैं यह मानता हूॅ कि इन विषयों को लेकर कांग्रेस सरकार के द्वारा बनाई गई कमेटियों में एन.जी.ओ. के मुखियाँ नाम के वे अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार प्राप्त व्यक्ति नामजद किए गए थे, जो विश्व बैंक या डब्लू.टी.ओ. आदि के भारत में घोषित-अघोषित प्रवक्ता और एजेण्डा को आगे बढ़ाने वाले रहे हैं। इन लोगों ने जनसंघर्ष के नाम पर छद्म संघर्षाें को और वैश्वीकरण की ताकतों के एजेण्डा चलाने वाली ताकतों के दूरस्थ लक्ष्यों का पर्याय बनाया है। पर इसका हल हो सकता था अगर सरकार आजादी के पहले के संघर्षाें को शामिल कराती और इन विदेशी विŸापोषित तथाकथित सूरमाओं के छदम संघर्षाें को हटाती। परंतु सरकार ने तो गर्दन की फँुसी हटाने के नाम पर गर्दन को ही काटने का काम किया।

ऐसा लगता है कि जो अपराध पिछली कांग्रेस सरकार इतिहास और तथ्यों के साथ कर रही थी वही अपराध उसे मिटाने के नाम पर यह सराकर भी कर रही है।

एन.सी.ई.आर.टी की किताब में राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जो महात्मा गाँधी के आँदोलन के सिपाही भी थे उनके अनुज सियाराम शरण गुप्त की एक कविता शामिल थी। इस लंबी कविता में स्व. सियाराम शरण गुप्त ने आज से लगभग 80 साल पहले ‘‘एक फूल की चाह’’ नामक लंबी कविता लिखी थी, जो छुआछूत की समस्या पर केंद्रित थी और एक मरणासन्न अछूत कन्या की पीड़ा का मार्मिक चित्रण थी। जिसमें एक दलित जब मंदिर प्रवेश के अपराध की सजा काटकर व देवी का फूल लेकर अपनी बीमार बेटी के पास पहुंचता है, तब तक वह बीमारी से मर चुकी होती है और उसकी चिता जल चुकी होती है। स्व. गुप्त जी ने उस दलित पिता के दुख का वर्णन इन चार पंक्तियों में किया है।

‘‘अंतिम बार गोद में बेटी – तुझ को में ले न सका था’’। ‘‘एक फूल माँ का प्रसाद भी – तुझकों दे न सका था’’। यह मार्मिक कविता तत्कालीन समाज की जातिवाद व जुल्मी व्यवस्था का खुलासा थी। अब इसे हटाने का उद्देश्य क्या है? क्या वर्तमान सरकार अतीत की उन पीड़ाओं को सहे हुए जुल्मों को इतिहास के पन्नें हटाकर इतिहास को बदलना चाहती है? इतिहास को बदलने का काम न केवल सरकारी तौर पर बल्कि गैर सरकारी तौर पर भी तेजी से चल रहा है। पिछले दिनों जब मैं छत्तीसगढ़ के चांपा जिले के दौरे पर था तब मुझे एक अति पिछड़ी जाति क,े सरपंच मिलने के लिए आए थे। उनका संबंध भाजपा और संघ के साथ है। बातचीत में वे मुझसे बोले कि शम्बूक वध और एकलव्य की कथाएं शास्त्र संगत नहीं हैं। इन्हें तो मुगल काल और ब्रिटिश काल में जबरदस्ती शामिल किया गया। मैंने उनसे पूछा कि वो पुरानी रामायण कौन सी है? और उसमें बदलाव किस सन् में हुआ है? इसका कुछ प्रमाण बताइए। तो उन्होंने कहा कि ‘‘मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है पर इसका उद्देश्य समाज में सवर्णाें के खिलाफ आक्रोश पैदा करना था। तुलसी की रामायण जो अवधी में लिखी गई थी वह तो लगभग 14वीं सदी की है। और तुलसी का विरोध करने वाले मुसलमान या अन्य धर्मावलंबी नहीं थे बल्कि हिन्दू समाज के ही थे इसलिए तुलसी को लिखना पड़ा कि मुझे किसी से लेना देना नहीं है।

‘‘माँग के रवइबो, मसीद में सोइवो’’ वाल्मीकि की रामायण भी कोई अभी की नहीं है और समूची दुनिया में जो 72 रामायणें है वह भी प्राचीन ग्रंथ ही है। जिस प्रकार अंग्रेजों ने देश के इतिहास को गलत ढंग से व्याख्यायित कर हिन्दू और मुसलमान का इतिहास बनाने का प्रयास किया ताकि देश विभाजित रहे उसी प्रकार का यह दूसरा प्रयास है। जो इतिहास को झुठलाकर कृत्रिम एकता को रचने का प्रयास है। अतीत की गलतियों को स्वीकार कर प्रायश्चित करना तो उपयोगी होता है। परंतु प्रायश्चित न करना पड़े इसलिए अतीत को दबाना या छिपाना या मिटाना यह इतिहास को विकृत करने का भी प्रयास है और बदलने का भी अपराध है।

सŸााधीशों को गाँधी के बड़प्पन से सबक सीखना चाहिए। जब अम्बेडकर जी ने उनकी कटु शब्दों में आलोचना की तो उन्होंने न केवल उसका प्रतिकार नहीं किया बल्कि यह कहा कि हमारे पुरखों ने जो अपराध किया है उसके प्रायश्चित स्वरूप हमें उन गालियों को चुपचाप सहना चाहिए। इतिहास को स्वीकार करना भी अहिंसा है और इतिहास को बदलने या मिटाने का प्रयास करना भी क्रूर हिंसा है।

अंत में मैं सरकार को सुझाव दूॅगा कि:-

1. सरकार जिन तथ्यों से सहमत नहीं है, उन्हंे हटाने के बजाए उनके उत्तर के रूप में अपनी जानकारियों की पुस्तकें तैयार कराए तथा निर्णय समाज को करने दें।

2. एन.सी.ई.आर.टी. निर्धारित पुस्तकों को पाठ्यक्रम में शामिल करने के आदेश के बजाए छात्रों को पठनीय सभी पुस्तकों के रूप में शामिल करे और यह निर्णय समाज के ज्ञान और विवेक पर छोड़ दे ताकि लोक और छात्र उनमें सच को खोज सकें।

3. अमेरिका और अन्य देशों में ‘‘जहाँ रंग के आधार पर नीग्रो आदि नस्ल के आधार पर जुल्म हुए हैं वहाँ भी उन्होंने उन्हें उन घटनाओं को अपनी पुस्तकों से नहीं हटाया है। बल्कि उन्हें शामिल कर समाज और राष्ट्र के राष्ट्रीय विवेक पर छोड़ दिया है। जिसके परिणाम अनुकूल ही आये हैं। इनसे प्रायश्चित, बदलाव की मनः स्थिति व शक्ति प्राप्त होती है और बदला मन ही समाज व राष्ट्र की एकजुटता को मजबूत करता है।

India Edge News Desk

Follow the latest breaking news and developments from Chhattisgarh , Madhya Pradesh , India and around the world with India Edge News newsdesk. From politics and policies to the economy and the environment, from local issues to national events and global affairs, we've got you covered.
Back to top button