गरुड़जी के सात प्रश्न एवं काकभुशुण्डी के उत्तर आज भी प्रासंगिक

डॉ. शारदा मेहता
लंका में राम-रावण युद्ध के समय मेघनाद ने श्रीरामजी को नागपाश में बाँध दिया। सभी के लिए प्रभु की लीला संकट का कारण बन गई। ऐसे समय नारदजी ने गरुड़जी को वहाँ भेजा। गरुड़जी ने श्रीरामजी को नागपाश के बंधन से मुक्त किया। गरुड़जी के मन में यह मोह उत्पन्न हो गया कि-
व्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।
सो अवतार सुनहुं जग माहीं। देखेऊँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा ५७/४)
अर्थात् जो व्यापक हैं, विकार रहित, वाणी के पति और माया मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत् में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस (अवतार) का कुछ भी प्रभाव नहीं देखा। गरुड़जी ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने शंकरजी के पास भेजा। शंकरजी ने उमाजी से कहा-
‘कछु तेही ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा।
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।Ó
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दो. ६१/५)
शंकरजी उन्हें मार्ग में ही मिल गए। उन्होंने कहा-
रामभगति मनि उर बस जाकें। दु:ख लव लेस न सपने हुँ ताकें।।
चतुर शिरोमणि ते हि जग माही। जे मनि लागि सुजतनकराहीं।।
अर्थात्- उन्होंने (शंकरजी) ने कहा रामभक्तिरूपी मणि जिसके हृदय में बसती है उसे स्वप्न में भी लेश मात्र दु:ख नहीं होता है। जगत में वे ही चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस भक्तिरूपी मणि के लिए भली भाँति यत्न करते हैं।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ११९/५)
शंकरजी ने गरुड़जी को काकभुशुंडिजी का निवास स्थान बतलाते हुए कहा-
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान विरागा।।
उत्तर दिसि सुन्दर गिरि नीला। तहँ रह काक भुसुंडि सुसीला।।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा ६१/१)
अर्थात्- बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्य आदि के करने से श्रीरघुपतिजी नहीं मिलते हैं। तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ। उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुंडिजी रहते हैं। उस पर्वत का वर्णन करते हुए शंकरजी कहते हैं-
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला।।
सैलोपरि सर सुन्दर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा ५५/५)
अर्थात्- उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुन्दर तालाब शोभित है, जिसकी मणियों की सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है।
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पान्त न होई।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा ५६/१)
अर्थात्- उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। माया रचित अनेक गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक (वहाँ नहीं रहते हैं) ऐसे स्थान पर काकभुशुंडीजी श्रीहरिकथा कहते हैं।
गरुड़जी वहाँ पहुँचते हैं और देखते हैं कि काकभुशुण्डि अलग-अलग पर्वतों पर पृथक-पृथक वृक्षों के नीचे बैठकर कथा करते हैं। श्रोता उनकी कथा का बड़े मनोयोग से श्रवण करते हैं। वहाँ गरुड़जी कहते हैं-
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी।।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा १२०/१)
अर्थात्- पक्षिराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिये। गरुड़जी द्वारा पूछे के सात प्रश्न आज के परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक है। भुशुण्डिजी के अमृतमय उपदेश से उन्हें आनन्द प्राप्त होता है। गुरुकृपा से मुझे आज आपसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। गरुड़जी प्रश्न पूछते हैं-
प्रश्न १. सबसे दुर्लभ कवन शरीरा?
उत्तर – काकभुशुण्डि अगणित शरीर धारण कर चुके थे। इसलिए उनको शिवकृपा से सभी जन्मों का बोध बना हुआ है। वे उचित रूप से बता सकते हैं कि कौन सा शरीर प्राप्त करना चाहिए। मानव शरीर से बढ़कर और कोई जीवन नहीं है। यही मोक्ष की सीढ़ी है। बिना ईश्वर की पावन भक्ति के परलोक में सुख नहीं प्राप्त किया जा सकता है। चर अचर सभी इसकी याचना करते हैं।
प्रश्न २. बड़ दु:ख कवन? सबसे बड़ा दु:ख कौन सा है?
उत्तर – दरिद्रता ही सबसे बड़ा दु:ख है। चाहे वह आर्थिक दरिद्रता हो, वैचारिक दरिद्रता हो या आध्यात्मिक दरिद्रता ही हो। मनुष्य विषय भोग में डूबा रहता है। सांसारिक विषय भोग में अपना जीवन व्यतीत करना, विलासिता पूर्ण जीवन यापन करना उसे अच्छा लगता है। यह उसे अपनी शान समझता है। ईश्वर को तो वह लगभग भूल ही जाता है। इसीलिए इह लोक में दु:खी होता है और परलोक में भी अपने पाप पूर्ण आचरण के कारण दु:ख भोगना पड़ता है।
प्रश्न ३. कवन सुख भारी? सबसे बड़ा सुख कौन सा है?
उत्तर – सन्तों के साथ समागम करना सबसे बड़ा सुख है। सन्त हमेशा परोपकार करते हैं। दूसरों के दु:ख को दूर करने के लिए उन्हें कितना भी कष्ट सहना पड़े वे सहर्ष सहन कर लेते हैं। संत के बारे में कहा गया है- ‘कंचन को मृतिका कर मानत, कामिनी काष्ठशिला पहिचानत।Ó ऐसे सन्त भगवान को प्रिय हैं। सन्त हमें सन्तोष रूपी धन प्राप्त करने की शिक्षा देते हैं। ‘असंतोषो हि दारिद्रय संतोष: परमं धनम्।Ó सन्त भोज वृक्ष के समान होते हैं, जिसकी पतली छाल खींच कर उस पर लेखन कार्य किया जाता था। आज भी उससे हस्तकला की वस्तुएँ बनाई जातीं हैं।
प्रश्न ४. सन्त असन्त मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
सन्त और असन्त का भेद क्या है?
उत्तर- भगवान ने भरतजी से सन्त और असन्त दोनों का वर्णन किया है और नारदजी से सन्तों के गुण कहे हैं। सन्तों के गुण उपादेय हैं। वे वेद शास्त्र के सार को ग्रहण करते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि असन्त में हेय गुण होते हैं। यदि भक्त की इच्छा बलवती है, उसकी भक्ति परम पवित्र है तो उसके लिए कहीं भी कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ऐसा व्यक्ति सन्त है जो सब काल में, सब परिस्थिति में सहज बना रहता है। सन्त भलाई करते हैं। असन्त दु:खदायी होते हैं। लहलहाती फसल पर ओला वृष्टि होने से कृषक की फसल नष्ट हो जाती है। वे असन्त के समान हैं। चन्द्रमा पृथ्वी पर चाँदनी बिखरेता है वह सन्त है। भोज वृक्ष भी संत के समान होते हैं। प्राचीन समय में जब कागज का आविष्कार नहीं हुआ था तब भोज वृक्ष की पतली पतली छाल खींचकर उस छाल पर प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की गई थी। सन्त व्यक्ति भी अपना सब कुछ समाज को अर्पण करता है। स्वयं असंख्य कष्ट सहन करता है। अहि (सर्प), मूषक (चूहा) और (हिम उपल) ओले ये तीनों असज्जन के समान हैं। सर्प काटता (डसता) है, मूषक अनाज आदि खाकर दूसरों का अपकार करता है और ओले खेतों का नाश कर स्वयं नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न ५. कवन पुन्य विशाल?
कौन सा पुण्य बड़ा है?
उत्तर – सबसे बड़ा धर्म अहिंसा व्रत का पालन करना है। अहिंसा परमो धर्म:। अहिंसा के तीन भेद बताए गए हैं। १. स्वयं हिंसा करना-कृता। २. दूसरों को हिंसा के लिए प्रेरित करना, उससे हिंसा करवाना- कारिता ३. यदि कोई व्यक्ति हिंसा कर रहा है तो उसका अनुमोदन करना, अपनी ओर से उसे स्वीकृति प्रदान करना- यह अनुमोदिता है। निन्दा करना, झूठ बोलना, परदोष को दुगना करके बताना, दोषारोपण करना, मानव जन्म में भी मानवोचित कार्य नहीं करना, द्विज निन्दा करना, गुरुजनों का अपमान करना आदि सभी घृणित कार्य हिंसा के अन्तर्गत समाविष्ट किए गए हैं।
प्रश्न ६. कहहु कवन अघ परम कराला?
कौन सा पाप सबसे बड़ा है?
उत्तर – हमेशा परनिन्दा में रत रहना सबसे बड़ा पाप है। शिवजी की निन्दा करना, गुरु की निन्दा करना सबसे बड़ा पाप है। इन दोनों की निन्दा करने वाला मेंढक होता है। ब्राह्मण की निन्दा करने वाला नर्क में जाता है और कौआ का शरीर पाता है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है- उल्लू को ज्ञान (प्रकाश) अच्छा नहीं लगता है। जो सर्वदा सबकी निन्दा में रत रहता है वह चमगादड़ का जन्म पाता है। उसे हमेशा उल्टे ही लटकना पड़ता है।
प्रश्न ७. मानस रोग कहहु समुझाई।
मानस रोगों को समझाकर कहिये।
उत्तर – सर्वप्रथम मोह ही सब रोगों की जड़ है। मोह से ही शूल उत्पन्न होते हैं। वात, पित्त और कफ की न्यूनता या अधिकता विभिन्न रोगों को जन्म देती है। अगर ये तीनों में एक्य हो जाए, तीनों बराबर हो जाए तो भी व्यक्ति को सन्निपात हो जाता है। यह बड़ा घातक है। व्यक्ति बुरी तरह से प्रलाप करता है। शारीरिक रोग तो बहुत कम लोगों को होता है, परन्तु मानसिक रोग कम अधिक मात्रा में मानव मात्र को होते रहते हैं। शारीरिक शूल आठ प्रकार के होते हैं। मानसिक शूल अगणित है। काम से क्रोध तथा लोभ बढ़ता है। कफ क्षुधा को कम करता है। पित्त बढ़ने पर शरीर में जलन होती है। किसी व्यक्ति में काम क्रोध दोनों बढ़ते हैं, किसी में क्रोध लोभ और किसी में काम लोभ बढ़ जाता है। यदि तीनों बढ़ें तो व्यक्ति का मानसिक तथा शारीरिक पतन होता है। दाद-खाज, खुजली ये ममत्व के रोग हैं, खुजलाने पर बढ़ते हैं। माता-पिता, धन, पुत्र, कन्या, वस्त्र, आभूषण में ममता मंडलाकार बढ़ती है। हर्ष, विषाद और ईर्ष्या भी मानसिक रोग हैं। पराया सुख देख कर मन में जलन होती है वहीं क्षय रोग है। कुष्ट रोग दो प्रकार का होता है- गलित तथा श्वेत। ये सभी रोगों में घृणित माना जाता है। इसी प्रकार अन्य कई रोग हैं- गठिया, अर्बुद, नहरुआ (नारू) क्षय तथा डमरूआ जलोदर आदि।
ये सभी रोग यदि व्यक्ति पर राम कृपा हो तो इन रोगों की पराकाष्ठा नहीं होती है।
रामकृपा नासहिंसब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।
(श्रीरामचरितमानस १२१ (ख) ३ उत्तरकाण्ड)
सद्गुरु बैद वचन विस्वासा। संजम यह न विषय कै आसा।।
अर्थात्- यदि रामजी की कृपा दृष्टि हम पर हो जाए तो ये सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो तो विषयों की आशा न हो तो संयम रूपी परहेज से रोग नष्ट हो जाते हैं।
इन सात प्रश्नों के उत्तर युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करेंगे। उन्हें संबल प्रदान करेंगे। नई जानकारी देंगे। नवीन आशा और धैर्य का संचार करेंगे, जिसमें कितनी भी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़े वे भगवान श्रीराम के आशीर्वाद से उसका सामना हँसते-हँसते कर लेंगे।