बिहार में सत्य और सकारात्मकता की जीत

Truth and positivity win in Bihar

युवाओं ने मोदी व नीतीश पर भरोसा जताया, वोट चोरी का असत्य नैरेटिव ध्वस्त

● नीरज मनजीत

बिहार में इस बार अपरिमित असत्य, घोर नकारात्मकता और अहर्निश अहंकार की बहुत बड़ी पराजय हुई है और महागठबंधन को बिहार के इतिहास की सबसे बड़ी हार झेलना पड़ी है। बिहार की जनता ने सत्य, सकारात्मकता और सच्चे वादे करके काम करने वाली सरकार के पक्ष में भारी जनादेश दिया है।

एनडीए की इस अभूतपूर्व जीत में युवाओं, महिलाओं, दलित, पिछड़े, अगड़े सहित जनता के हर तबके के वोट शामिल हैं। खास तौर पर युवाओं ने नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार के वादों पर पूरी तरह से भरोसा जताया है। तेजस्वी यादव और राहुल गांधी को यकीन था कि इस दफा युवाओं और महिलाओं के वोट महागठबंधन को मिलेंगे। तेजस्वी यादव ने अपने घोषणा पत्र में युवाओं और महिलाओं के लिए ‘लार्जर दैन लाइफ’ से भी बड़े वादे किए थे।

इधर राहुल गांधी भाजपा और चुनाव आयोग पर वोट चोरी का इल्ज़ाम चस्पां करके जेन-जी से सड़क पर उतरने की अपील कर रहे थे। मगर बिहार के जेन-जी ने साफ़ और बहुत ही ऊँची आवाज़ में राहुल और कांग्रेस को बता दिया है कि वोट चोरी के असत्य आरोपों को वे पूरी तरह ख़ारिज करते हैं।

सच कहा जाए तो यह पूरे देश के युवाओं–हर उम्र के युवाओं–की आवाज़ है। राहुल गांधी और कांग्रेस यदि इस आवाज़ को सुनकर सबक ले सकें और अपनी रणनीतियों को सकारात्मकता की ओर मोड़ सकें, तो यह कांग्रेस के लिए भी अच्छी बात होगी और देश के लिए भी।

बिहार के बारे में अक़्सर एक मुहावरे जा ज़िक्र किया जाता है कि बिहार लोकतंत्र की जननी है और यहाँ की जनता पूरे देश को रास्ता दिखाती है। इस चुनाव में भी बिहार की जनता ने देश को रास्ता दिखाया है। बिहार की जनता ने मोदी और नीतीश को विशाल जनादेश देकर नितांत स्पष्ट रूप से बताया है कि वह परिवारवाद, जाति के समीकरणों, झूठे वादों और वोट चोरी जैसे नकारात्मक मुद्दों को पूरी तरह अस्वीकार करती है।

बिहार की जनता अब पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहती। उसने नीतीश कुमार के 20 वर्षों के कार्यकाल में बिहार को बदलते देखा है। बिहार की जनता अब तरक़्क़ी के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहती है। उसे प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश के रोडमैप पर पूरा यकीन है। इसीलिए बिहार ने इस बार एंटी इनकम्बेंसी अर्थात सत्ता विरोधी फैक्टर जैसे कई मुहावरों को ध्वस्त कर दिया है।

राहुल गांधी, कांग्रेस और उसके समर्थित इकोसिस्टम ने बिहार के चुनाव को पूरी तरह वोट चोरी के बहुत बड़े असत्य नैरेटिव पर टिका कर नकारात्मक प्रचार की सारी हदें लांघ दी थीं। जहाँ तक अहंकार की बात है, क्या वह राहुल गांधी, कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम की अहर्निश पहचान नहीं बन गया है? क्या राहुल गांधी बिहार के चुनाव को एक प्रयोग के तौर पर लड़ रहे थे? यदि ऐसा है तो वे बिहार में बुरी तरह विफल हुए हैं।

बिहार में एसआईआर का अंध विरोध और वोट चोरी का असत्य नैरेटिव पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। जबकि उन्हें इस असत्य कहानी की कामयाबी पर इतना यकीन था कि वे आख़िरी क्षणों तक बिहार में महागठबंधन के सीनियर पार्टनर तेजस्वी यादव और राजद की उपेक्षा करते रहे।

बिहार के नतीजों ने यह भी बताया है कि राहुल और उनके बुद्धिमान सहयोगियों को बिहार की ज़मीनी हक़ीक़त का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। उन्हें और उनके इकोसिस्टम को ऐसा लग रहा था कि वोट चोरी का आरोप बिहार में एक बड़े मुद्दे के रूप में उभर कर आएगा और वे बिहार की जनता के बड़े तबके के वोट को अपनी तरफ़ खींचने में सफल हो जाएँगे।

संभवतः उन्हें यह भी लग रहा था कि बिहार में कांग्रेस अपनी बदहाली से निकलकर तेजस्वी यादव के बराबर खड़ी हो सकती है। इसीलिए राहुल और कांग्रेस आख़िर तक राजद से संवाद करने से कतराते रहे। जब कांग्रेस को ऐसा लगा कि वोट चोरी का उनका सबसे बड़ा मुद्दा बुरी तरह धराशायी हो चुका है और सारे सूत्र उनके हाथ से निकल चुके हैं, तब जाकर राहुल और कांग्रेस अपने अहंकार के वृत्त से निकले और तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया।

लगता है राहुल और कांग्रेस ने हरियाणा और महाराष्ट्र की भारी पराजय से कोई सबक नहीं सीखा है। बल्कि इसके ठीक उलट महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों के एक साल बाद परिणामों को वोट चोरी के असत्य आरोपों से जोड़कर अपनी हार का ठीकरा चुनाव आयोग और भाजपा पर फोड़ने की नाकाम कोशिश की है।

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव बांग्लादेश में हिंदुओं पर अनवरत अत्याचार की खबरों के बीच लड़े गए थे। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ “बंटोगे तो कटोगे, एक रहोगे तो सेफ रहोगे” का मुहावरा लेकर मैदान में उतरे थे। इस एक आदर्श वाक्य ने बहुसंख्यक समुदाय के दिलों को प्रभावित किया था। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी की विश्वसनीय छवि, विकास और दूसरे सकारात्मक मुद्दे तो थे ही।

इधर महाराष्ट्र में मौलानाओं के बेजा बयानों ने महागठबंधन को पीछे धकेलकर वोटों का ध्रुवीकरण कर दिया था। यहाँ भी बहुसंख्यक समुदाय पर इसका असर पड़ा था। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना, कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी के त्रिगुट महाविकास अघाड़ी की सरकार में जो भ्रष्टाचार और बेलगाम तंत्र देखा गया, उसने भी इंडी गठबंधन को काफी नुक़सान पहुँचाया था।

क्या हरियाणा में कांग्रेस ने नकारात्मक साजिशों के जरिए चुनाव जीतने की कोशिश नहीं की थी? क्या हरियाणा में कांग्रेस और राहुल गांधी अति आत्मविश्वास और अहंकार का शिकार नहीं हो गए थे? क्या हरियाणा में कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई हार की जिम्मेदार नहीं थी? प्रबुद्ध कांग्रेसियों के अंतर्मन में इन सभी सवालों का जवाब है–हाँ। ये सारे फैक्टर कांग्रेस के चुनाव अभियान में साफ तौर पर नज़र आ रहे थे। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा ने बेहतर रणनीति और कड़ी मेहनत के दम पर जीत हासिल की थी।

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