योग वस्तुतः एक बहुत ही व्यापक अवधारणा है

शिशिर शुक्ला

योग का शाब्दिक अर्थ है- जोड़ना। जोड़ की क्रिया हेतु न्यूनतम दो राशियों का होना अनिवार्य है, बिना दो घटकों के जोड़ की क्रिया का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। चाहे हम अंकगणित का उदाहरण ले लें अथवा विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं यथा- दो नदियों के संगम का, हम सदैव इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि जोड़ की क्रिया संपन्न होने के उपरांत जोड़ी जाने वाली राशियां योगफल में समाहित हो जाती हैं। एक बार जब योगफल अस्तित्व में आ जाता है, तब फिर उन राशियों का स्वतंत्र अस्तित्व महत्वहीन हो जाता है। योग वस्तुतः एक बहुत ही व्यापक अवधारणा है। मानव के स्थूल शरीर में अंतर्निहित सूक्ष्म शरीर अर्थात आत्मा का, अनंत ऊर्जापुंज अर्थात परमात्मा के साथ संपर्क साधने का महान कार्य योग के द्वारा ही संपन्न होता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो योग के द्वारा हमारे अंदर समाहित ऊर्जा का आयाम बढ़ाकर उसे अनंत ऊर्जास्रोत की दिशा में उन्मुख किया जाता है। वैज्ञानिक आधार पर कहा जाए तो साधारण परिस्थितियों में हम अनंत ऊर्जास्रोत से सम्बद्ध नहीं होते हैं किंतु योगसाधना के द्वारा हमारे अंदर की सूक्ष्म ऊर्जा का आयाम बढ़ाकर उसे अनंत ऊर्जा से जोड़ने का प्रयास किया जाता है। एक बार यदि हम अनंत ऊर्जा से जुड़ गए, तो फिर हमारी क्षमताएं भी स्वतः ही बढ़ जाती हैं क्योंकि विज्ञान के अनुसार क्षमता सदैव ऊर्जा पर निर्भर करती है।

योग एक कठिन, दीर्घकालिक किंतु क्रमबद्ध साधना है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने योग के महत्व को प्रमाणित करके दिखाया एवं यह उपदेश दिया कि स्वयं से परिचित होना केवल योग के माध्यम से ही संभव है। आज के समय में अव्यवस्थित, अनियमित एवं तथाकथित आधुनिक जीवन शैली में योग के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। दुष्परिणामस्वरूप, स्वयं से परिचित होना एवं आत्मसाक्षात्कार करना तो बहुत दूर रहा, आज अपनी काया को रोगमुक्त रख पाना ही एक गंभीर चुनौती सा प्रतीत होता है।
योग के मुख्यत: आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि। ये सभी वस्तुतः एक क्रमिक और अनुशासित साधना के आठ चरण हैं। यदि हम सच्ची साधना करना चाहते हैं, तो हमें इन सभी चरणों को क्रमबद्ध रूप से अपने जीवन का अंग बनाना होगा। सर्वप्रथम यदि यम की बात की जाए, तो यम के भी पांच अंग हैं- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। इन सभी अंगों का सामूहिक उद्देश्य मनुष्य के आचरण एवं मन को शुद्ध करना तथा संयम की भावना को अंतःकरण में जागृत करना है। जब तक मानवमन चंचलता के वशीभूत होकर, सांसारिक लोभ व लिप्सा तथा इंद्रियजनित सुखों के प्रति आसक्त रहेगा, तब तक योगसाधना को प्रारंभ करना सर्वथा असंभव है। ब्रम्हचर्य किसी भी साधना के लिए एक अपरिहार्य शर्त है। विज्ञान के अनुसार जब ऊर्जा का प्रवाह किसी एक ही दिशा में होता है, तब उसका प्रभाव स्वतः परिलक्षित होने लगता है। अपसरित होने से ऊर्जा किसी भी क्षेत्र में अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती। योगसाधना का दूसरा चरण है -नियम, जिसके भी पांच अंग हैं – शौच अर्थात शरीर व मन की शुद्धि, संतोष अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में सदैव प्रसन्न रहना, तप अर्थात अनुशासनबद्ध होना, स्वाध्याय अर्थात आत्मचिंतन करना एवं ईश्वर प्राणिधान अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। इन नियमों को जीवन में उतारने से मनुष्य शरीर व मन से शुद्ध, व्यवहार से अनुशासित एवं अहंकाररहित हो जाता है। यम व नियम का पालन करने के परिणामस्वरूप हम स्वत: ही आत्मचिंतन की ओर प्रेरित हो जाते हैं। योग का तीसरा चरण है- आसन। प्रथम दो चरणों के सफल साधनोपरांत, कुछ विशेष शारीरिक क्रियाओं के द्वारा शरीर को साधना ही आसन कहलाता है। विभिन्न आसनों का मानव शरीर के विभिन्न अंगों पर चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है। आसनों के अभ्यास में सफल होने का सीधा अर्थ है कि हम अपने शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने में सफल हो चुके हैं। योग का चौथा एवं अतिमहत्वपूर्ण चरण है- प्राणायाम। हमारा जीवन पूर्णतया सांसों पर आधारित है। सांस लेने की क्रिया में हम प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन को शरीर के भीतर प्रविष्ट कराते हैं, जहां रक्त के द्वारा इसे शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाया जाता है। प्राणवायु को अंदर खींचने की क्रिया श्वास एवं दूषित वायु को बाहर निकालने की क्रिया प्रश्वास कहलाती है। प्राणायाम के माध्यम से श्वास एवं प्रश्वास की गति पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है। प्राणायाम मन की चंचलता एवं विक्षुब्धता पर विजय पाने का माध्यम है। सार यह है कि, यम, नियम, आसन व प्राणायाम के माध्यम से चित्त को एकाग्र करने का प्रयास किया जाता है। योगसाधना का पांचवा चरण है- प्रत्याहार। प्रत्याहार के माध्यम से इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाने का प्रयास किया जाता है। एकाग्र हो चुके चित्त का अनुकरण करने की दिशा में इंद्रियों को प्रेरित करना ही प्रत्याहार है। प्रत्याहार तक पहुंचने के बाद मनुष्य बाहर की दुनिया से विरक्त होने लगता है एवं अपने चित्त को साधना के अगले चरण के लिए तैयार कर लेता है। योग का छठा चरण है- धारणा। धारणा का अर्थ है- किसी एक विषयविशेष को चित्त में समाहित करने का प्रयास करना। यही धारणा जब गहन चिंतन में परिणत होकर चरम सीमा पर पहुंच जाती है, तो ऐसी स्थिति में ध्येय के अतिरिक्त कुछ भी और चित्त में प्रविष्ट नहीं हो सकता। यह अवस्था ही योग साधना का सातवां चरण है, जिसे ध्यान कहा गया है। साधना के इस मार्ग पर जब एक कदम और आगे बढ़ा जाता है, तो चित्त का ध्येय के साथ विलय हो जाता है एवं मनुष्य को आत्मज्ञान प्राप्त होने की अनुभूति होने लगती है। यह अवस्था ही योगसाधना का अंतिम चरण अर्थात समाधि कहलाती है। समाधि के उपरांत स्वयं का कोई अस्तित्व व अर्थ नहीं रह जाता एवं चित्त का ध्येय के साथ पूर्ण रूप से योग हो चुका होता है। साररूप में यह कहा जा सकता है कि योगसाधना, यम से समाधि तक एक क्रमिक व दिव्य अनुभूति है। समाधि की अवस्था को प्राप्त करने के उपरांत, मनुष्य पूर्णरूपेण परमसत्ता से जुड़कर दिव्यता को प्राप्त हो जाता है। निस्संदेह, योगसाधना किसी चमत्कार एवं वरदान से कम नहीं है किंतु इसका लाभ प्राप्त करने के लिए त्याग, समर्पण, संयम व पवित्रता का होना सर्वथा अनिवार्य है।

India Edge News Desk

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