भगवान का शयन करना

भगवान सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान मधुसूदन की मूर्ति को शयन कराते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर भगवान जनार्दन शयन से उठाये जाते हैं। इस अवधि को चातुर्मास कहते हैं। गरुड़ध्वज जगन्नाथ के शयन करने पर चारों वर्णो की विवाह, यज्ञ आदि सभी क्रियाएं सम्पादित नहीं होतीं।

यज्ञोपवीतादि संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, ग्रहप्रवेशादि, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी चातुर्मास्य में त्याज्य हैं। भविष्य पुराण, पदमपुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।

संस्कृत साहित्य में हरि शब्द सूर्य, चन्दमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन के दृष्टि से देखें तो इन चार मास में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही रूप है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति सो जाती है।

आज वैज्ञानिकों की कृपा से संसार को भी यह बात विदित हो गई है कि चातुर्मास्य में (वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।

धार्मिक शास्त्रों के मतानुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अतः उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं।

पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें।

बलि के बंधन में बंधा देख भगवती लक्ष्मीजी ने बलि को भाई बना लिया। और भगवान से कहा इनको वचन से मुक्त कर दो। माना जाता है कि इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता 4-4 माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देव उठनी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

आषाढ़ शुक्ल एकादशी का नाम देवशयनी एकादशी है। मन चाहा फल एवं सुख समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह व्रत बहुत उत्तम है। व्रती उपवास करके सोना, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर पूजा करे और पीताम्बर से विभूषित करके सफेद चादर से ढके हुए गद्दे, तकिया वाले पलंग पर शयन करावे। मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रदि की प्राप्ति के लिये, तैल का, शत्रु नाशादि के लिए कड़वे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें।

 

India Edge News Desk

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