कम होती धूप ने बढ़ाई चिंता, वैज्ञानिक बोले – सूरज की रोशनी पर पड़ रहा प्रदूषण का साया

नई दिल्ली

प्रकृति से खिलवाड़ का असर दिखने लगा है. इससे दुनिया के हर देश और क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं. अब अपना ही देश देखिए ना. इस साल मानसून के सीजन में देश के उत्तरी हिस्से में कई जगहों पर औसत से काफी अधिक बारिश हुई. वहीं पूर्वी भारत पूरे मानसून में बारिश के लिए तरसता रहा. फिर लौटते-लौटते वहां भी मानसून ने बड़ी तबाही मचा दी. बिहार और पश्चिम बंगाल में मानसून के अंतिम दिनों में भारी बारिश हुई. मौसम में यह बदला यूं नहीं हो रहा है. इसके पीछे गहरे कारण सामने आ रहे हैं. इस बीच एक और चिंतित करने वाली स्टडी आई है. इसके मुताबिक भारत के भूभाग में सूरज की चमक फीकी पड़ने लगी है. एक तरह से भारत से सूरज रूठने लगा है. पूरे इलाके में धूप के घंटों में बड़ी कमी आई है. ऐसे में संकट की इस आहट से वैज्ञानिक बेचैन हो गए हैं.

दरअसल, इस साल की लंबी मानसून और लगातार छाए बादलों से ऐसा महसूस हुआ कि मानो सूरज कहीं खो गया हो. लेकिन अब एक नई वैज्ञानिक स्टडी ने इस धारणा को डेटा से पुष्ट किया है. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू), पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी (आईआईटीएम) और इंडिया मेट्रोलॉजिकल डिपार्टमेंट (आईएमडी) जैसे संस्थानों के वैज्ञानिकों के एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया है कि भारत के अधिकतर हिस्सों में पिछले तीन दशकों से धूप के घंटे लगातार घट रहे हैं. इसका प्रमुख कारण मोटे बादल और बढ़ता एरोसोल प्रदूषण है.

रिपोर्ट के मुताबिक यह शोध इस महीने नेचर की साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल में प्रकाशित हुआ है. अध्ययन में 1988 से 2018 तक नौ क्षेत्रों के 20 मौसम स्टेशनों से धूप घंटों के डेटा का विश्लेषण किया गया. धूप घंटे वे होते हैं जब सूर्य की किरणें इतनी तेज होती हैं कि उन्हें रिकॉर्ड किया जा सके. निष्कर्षों के अनुसार सभी क्षेत्रों में सालाना धूप घंटे घटी हैं, सिवाय पूर्वोत्तर भारत के जहां मौसमी स्तर पर मामूली स्थिरता देखी गई.

स्टडी में क्या कहा गया? 20 जगहों का डेटा

वैज्ञानिकों ने 1988 से 2018 तक 9 इलाकों के 20 मौसम स्टेशनों के धूप-घंटे डेटा की जांच की. धूप-घंटा वो समय होता है जब सूरज की रोशनी इतनी तेज हो कि इसे रिकॉर्ड किया जा सके. नतीजा- सभी इलाकों में सालाना धूप के घंटे घटे हैं. सिर्फ पूर्वोत्तर भारत में मॉनसून के मौसम में थोड़ी स्थिरता दिखी.

    BHU के वैज्ञानिक मनोज के. श्रीवास्तव ने बताया कि औसतन पश्चिम तट पर धूप के घंटे हर साल 8.6 घंटे कम हुए.
    उत्तरी मैदानी इलाकों में सबसे ज्यादा गिरावट – 13.1 घंटे प्रति साल.
    पूर्वी तट: 4.9 घंटे प्रति साल की कमी.
    डेक्कन पठार: 3.1 घंटे प्रति साल की कमी.
    मध्य अंतर्देशी इलाका: करीब 4.7 घंटे प्रति साल की कमी.

स्टडी कहती है कि अक्टूबर से मई तक (सूखे महीनों में) धूप बढ़ी, लेकिन जून से सितंबर (मॉनसून में) तेज गिरावट आई.

क्यों घट रही धूप? बादल और प्रदूषण के दोषी

वैज्ञानिकों का मानना है कि ये 'सोलर डिमिंग' (सूरज की रोशनी कम होना) एरोसोल कणों की वजह से है. एरोसोल छोटे कण होते हैं, जो फैक्ट्रियों के धुएं, जलते बायोमास (लकड़ी-कोयला) और गाड़ियों के प्रदूषण से निकलते हैं.

ये कण बादलों के लिए 'बीज' का काम करते हैं. इससे बादल के छोटे-छोटे बूंदें बनती हैं, जो लंबे समय तक आसमान में टिके रहते हैं. नतीजा- ज्यादा बादल होने से कम धूप मिल रही है. 

इस साल की मॉनसून में भी भारत के ज्यादातर हिस्सों में लगातार बादल छाए रहे, खासकर पश्चिम तट, मध्य भारत और डेक्कन पठार पर. बारिश न होने पर भी आसमान ढका रहा. स्टडी 2018 तक की है, लेकिन आज भी वही धुंध, नमी और बादल पैटर्न बने हुए हैं – बल्कि पहले से ज्यादा.

श्रीवास्तव ने जोड़ा कि ज्यादा एरोसोल बादलों को वातावरण में लंबे समय तक रखते हैं, जिससे जमीन तक सूरज की रोशनी कम पहुंचती है.

धूप के घंटों की कमी का बड़ा असर पड़ेगा…

    सोलर एनर्जी: भारत दुनिया का तेज बढ़ता सोलर मार्केट है. लेकिन कम धूप से बिजली उत्पादन घटेगा. रिन्यूएबल इंफ्रास्ट्रक्चर की प्लानिंग मुश्किल हो जाएगी.
    खेती: फसलें सूरज पर निर्भर. कम धूप से पैदावार प्रभावित होगी, खासकर मॉनसून के बाद वाली फसलें.
    मौसम मॉडलिंग: क्लाइमेट चेंज की भविष्यवाणी में गड़बड़ी. प्रदूषण और बादलों का पैटर्न बदल रहा है.

वैज्ञानिक कहते हैं कि ये ट्रेंड जारी रहा, तो भारत को प्रदूषण कंट्रोल और क्लाउड मॉनिटरिंग पर ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा. ये स्टडी बताती है कि विकास के साथ पर्यावरण का संतुलन कैसे बिगड़ रहा है. लंबी मॉनसून अच्छी लगती है, लेकिन ज्यादा बादल और प्रदूषण से सूरज छिप रहा है. भारत को साफ हवा, कम एरोसोल और बेहतर मौसम पूर्वानुमान पर काम तेज करना होगा. 

बीएचयू के वैज्ञानिक मनोज के. श्रीवास्तव के मुताबिक औसतन, पश्चिमी तट पर धूप घंटे प्रति वर्ष 8.6 घंटे कम हुए, जबकि उत्तरी भारतीय मैदानों में सबसे तेज गिरावट 13.1 घंटे प्रति वर्ष दर्ज की गई. पूर्वी तट और डेक्कन पठार पर भी क्रमशः 4.9 और 3.1 घंटे प्रति वर्ष की कमी देखी गई. केंद्रीय अंतर्देशीय क्षेत्र में भी लगभग 4.7 घंटे प्रति वर्ष का नुकसान हुआ. अध्ययन के मुताबिक, अक्टूबर से मई सूखे महीनों में धूप में थोड़ी वृद्धि हुई, लेकिन जून से सितंबर के मानसून काल में गिरावट तेज रही. वैज्ञानिकों ने इस लंबे समय के ‘सोलर डिमिंग’ को उच्च एरोसोल सांद्रता से जोड़ा है- ये छोटे कण औद्योगिक उत्सर्जन, बायोमास जलाने और वाहनों के प्रदूषण से निकलते हैं.

छाए रहते हैं बादल

एक वैज्ञानिक ने कहा कि ये एरोसोल संघनन नाभिक का काम करते हैं, जिससे बादल के छोटे-छोटे कण बनते हैं जो लंबे समय तक टिके रहते हैं और आकाश को लगातार ढक लेते हैं. इस साल का मानसून भी भारत के अधिकांश हिस्सों में लगातार बादलों से भरा रहा, खासकर पश्चिमी तट, मध्य भारत और डेक्कन पठार पर. यहां बिना बारिश के दिनों में भी ओवरकास्ट स्थितियां आम रहीं. हालांकि अध्ययन 2018 तक का है, लेकिन ये रुझान आज भी प्रासंगिक हैं- हवा, नमी और बादल पैटर्न पहले से कहीं अधिक मजबूत हो गए हैं. श्रीवास्तव ने आगे कहा कि उच्च एरोसोल संख्या बादलों के वातावरण में रहने के समय को बढ़ाती है, जिससे जमीन तक पहुंचने वाली सूर्य की किरणें कम हो जाती हैं.

भारत में एरोसोल प्रदूषण वैश्विक औसत से दोगुना है, जो दक्षिण एशिया को ‘ब्राउन क्लाउड’ के रूप में जाना जाता है. यह न केवल स्थानीय मौसम को प्रभावित करता है, बल्कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने और क्षेत्रीय वर्षा पैटर्न में बदलाव लाता है. इस गिरावट के गंभीर निहितार्थ हैं. भारत दुनिया के सबसे तेज बढ़ते सोलर मार्केट में से एक है, जहां 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा का लक्ष्य है. लेकिन कम सूर्य घटना से सोलर पैनलों की क्षमता प्रभावित हो रही है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि धूप घंटों की 10% कमी से सोलर आउटपुट में 5-7% की गिरावट आ सकती है, जो लंबी अवधि की योजना को बाधित करेगी.

कृषि पर असर

सूर्य की कमी से फसल चक्र बिगड़ रहे हैं, विशेषकर धान और गेहूं जैसी फसलों में, जहां प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होता है. जलवायु मॉडलिंग में भी यह चुनौती है, क्योंकि सटीक पूर्वानुमान के लिए धूप डेटा महत्वपूर्ण है. वैज्ञानिकों ने सिफारिश की है कि एरोसोल मॉनिटरिंग को मजबूत किया जाए, प्रदूषण नियंत्रण नीतियां सख्त हों और सोलर इंफ्रास्ट्रक्चर हाइब्रिड मॉडल पर आधारित हो. आईआईटीएम के एक अधिकारी ने कहा कि शहरीकरण और औद्योगीकरण से एरोसोल बढ़ रहे हैं, लेकिन हरित ऊर्जा और वनरोपण से इसे रोका जा सकता है.

2025 के मानसून में दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 300 से ऊपर रहा, जो बादलों को और गाढ़ा कर रहा है. यह स्टडी जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक चेतावनी है. भारत सरकार की क्लाइमेट रिसर्च एजेंडा 2030 में ऐसे रुझानों पर जोर दिया गया है, लेकिन क्रियान्वयन की दर चिंताजनक है. पीड़ित किसान और सोलर कंपनियां पहले से ही नुकसान झेल रही हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि यदि तत्काल कदम न उठाए गए, तो ‘सनशाइन स्टेट’ का सपना धुंधला पड़ जाएगा.

 

India Edge News Desk

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