मनुस्मृति सहित भारतीय धर्मग्रंथों को उसके सही भाव को समझते हुए पढ़ना चाहिए

डा. विनोद बब्बर
मुुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि आज के हिंदू समाज में चार वर्ण और अनेक जातियां और उपजातियां हैं। हमारे समाज को बांटे रखने के प्रयासों का परिणाम है कि आज स्वयं को हिंदू बताने वाले लगभग नगण्य हंै जबकि स्वयं को फलां जाति का बताने वाले अधिक हंै। आज की जातिप्रथा और वर्णप्रथा का स्वरूप कुछ ऐसा बना दिया गया है कि अब कर्म की बजाय जन्म प्रधान है। आश्चर्य है कि धर्म परिवर्तन संभव है परंतु जाति परिवर्तन नहीं हो सकता।
हिन्दू छोड़ इस्लाम अथवा ईसाई मत स्वीकार करने वालों को वहां भी जाति ने नहीं छोड़ा। इस संदर्भ में एक उदाहरण देना चाहूंगा। दिल्ली प्रवास के दौरान एक मुस्लिम डाक्टर ने कुछ क्षण के लिए अपनी बेटी की शादी में पधारने का आग्रह किया। मेरे मेजबान को भी यह वहां जाना था सो हम दोनों वहां पहुंचे। हमंे देख अनेक लोगों को आश्चर्य हुआ। तभी एक मुस्लिम बुद्धिजीवी ने हमारा अभिवादन करने के बाद धीरे से कान में कहा, ‘आप यहां कहां आ गये, क्या आपको मालूम है डाक्टर मशकी हैं?’
मैंने उनसे पूछा, ‘मशकी, नाई, रंगरेज, धोबी आदि जातियां तो हिन्दुओं में होती हैं। आपके यहां मशकी कैसे?’ उस बुद्धिजीवी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अरे साहिब, हम भी तो भारतीय हैं। धर्म अपनी जगह, जाति अपनी जगह। शादी ब्याह के लिए कुछ क्लासिफिकेशन करना ही पड़ता है।’
कुछ यही स्थिति भारतीय ईसाई समाज की है। वहां भी जातिगत भेदभाव कुछ रूप बदलकर विद्यमान है। यह बात स्वयं धर्मान्तरित ईसाई संगठन के नेता ने सार्वजनिक रूप से कही है कि वहां अलग-अलग वर्गों के लिए अलग- अलग चर्च हैं। एकसमानता की बात कोरी लफ्फाजी है जबकि सत्य यह है कि धर्मान्तरण से उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। यहां एक उदाहरण देना चाहूंगा। एक व्यक्ति जिसका नाम छेदीलाल था, उसे सब छेदी-छेदी कहते तो उसे बुरा लगता।
उसने अनेक बार अपने समाज के लोगों से नाम बदलने की गुहार लगाई लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। इसी बीच उसके असंतोष का लाभ उठाते हुए एक सम्प्रदाय के लोगों ने उसेे अपने सम्प्रदाय के गुणों के बारे में बताया। प्रभावित हो उसने वह अपने पूर्वजों की आस्था और विश्वास को त्याग उस सम्प्रदाय में शामिल हो गया। अब उसे उस सम्प्रदाय के तौर तरीके सिखाये गये। उनके ढंग से उपासना और अभिवादन आदि के लिए एक खास शब्दावली का उपयोग करने लगा। इसी बीच उसका नाम छेदीलाल से बदलकर सुराख अली रख दिया गया।
कुछ दिन बाद उसे अहसास हुआ कि कुछ भी तो नहीं बदला। उसने अपने नये साथियों से नाम बदलने की गुहार लगाई लेकिन नतीजा सिफर। इसी बीच एक तीसरे सम्प्रदाय ने उसके असंतोष का लाभ उठा उससे सम्पर्क किया और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताया। वहां भी प्रथम दिन उसका स्वागत हुआ। फिर वहीं कुछ नये ढंग की बातें। फिर एक बार नया नाम। इस बार वह जान हाल बनाया गया। इस बार वह बहुत प्रसन्न था कि अंग्रेजी नाम मिला लेकिन जब किसी अंग्रेजी दां ने उसके नाम को अर्थ बताया तो उसने माथा पीट लिया। उसने अपने अनुभव से समझ लिया कि बदलाव के दावे केवल भ्रामक प्रचार हैं। बदलाव के लिए शिक्षा और संस्कार ही सबसे कारगर हैं।
अब जरा मनुस्मृति की चर्चा करें। कुछ ऐसे लोग जिन्होंने मनुस्मृति को पढ़ना तो दूर, देखा तक नहीं, वे बताते हैं कि यह बहुत खराब है। वे नासमझ नहीं जानते कि कि मनुस्मृति का मत है-जन्मना जायते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्यते अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।
वास्तविकता यह है कि मनुस्मृति केवल मानवता और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है।
मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। आज भी तो अनपढ़ उपेक्षित का बेटा पढ़ लिखकर प्रशासनिक अधिकारी बन सकता है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद)
मां की संतान व्यास महर्षि व्यास
बने।
आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्रा अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। श्रीकृष्ण क्षत्रिय से यदुवंशी हुए, महाराज अग्रसेन वैश्य हुए, राजा हरिश्चन्द्र एक डोम के हाथ बिके। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हमारे मौजूद हैं जो आंखंे खोलते हैं।
स्वामी रामानंदाचार्य जी के बारह प्रमुख शिष्यों अनंतानंद, भावानंद, पीपा, कबीर, सेन, धन्ना, नरहरयानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरि, पद्मावती को कौन नहीं जानता लेकिन बहुत कम लोग ही जानते हैं कि इनमें से अनेक संत जन्म से तथाकथित छोटी जातियों से संबद्ध थे लेकिन क्या इससे उनके प्रति श्रद्धा में किसी प्रकार की कमी आती है? क्या एक राजघराने के राजपूत परिवार में जन्मी मीरा ने गुरु बनाते समय रैदास से उनकी जाति पूछी थी? क्या निषाद, केवट, शबरी से उनकी जाति पूछने के बाद राम ने उन्हें अपनाया?
क्या आप जानते हैं कि दक्षिण भारत में जन्में महान विद्वान और , संत स्वामी रामानुचार्य वृद्ध होने पर अपने दो शिष्यों के साथ स्नान करने नदी तक जाते थे। जाते हुए वे ब्राहमण का सहारा लेते थे लेकिन स्नान के बाद तथाकथित शूद्र का सहारा लेकर अपने आश्रम तक लौटते। एक बार किसी ने पूछा- ‘आप स्नान बाद आप शूद्र का स्पर्श क्यों करते हैं?’ इसपर उनका उत्तर था, ‘स्नान के तन की शुद्धि के लिए होता है लेकिन मेरे मन में अभिमान आता है कि मैंने इतने ग्रन्थ लिखे। मेरे इतने शिष्य और न जाने क्या- क्या। तब एक शूद्र के सहारे वापस लौटते हुए मेरी बुद्धि मेरे मन के अहंकार को फटकार लगाती है कि तुम कुछ नहीं हो। खुद चल भी नहीं सकते। एक शूद्र तुम्हारा सहारा है।’
बहुत संभव है कि कुछ बातें समय, काल, परिस्थिति के अनुसार अप्रासंंिगक हो लेकिन मनुस्मृति के विरोधियों को जानना चाहिए कि वे तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते। भारतीय समाज को बदनाम करने के लिए विधर्मियों ने अनेक विभ्रम फैलाये हंै। अगर वहां सब समान है तो मतान्तरित होने के बाद भी वे स्वयं के लिए अनुसूचित जाति आरक्षण की मांग का औचित्य क्या है?
मेरा आग्रह है कि सभी को मनुस्मृति सहित भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में उसके सही भाव को समझते हुए पढ़ना चाहिए। अपने पिता को जेल में डालने और भाइयों का कत्ल करने वाले क्रूर मुगल बादशाह औरंगजेब का भाई दारा शिकोह हमारे ग्रन्थों को पढ़कर ही महान मानवतावादी बना। हमारा मत है- सिया राम मय सब जग जानी। करहु प्रणाम जोरि जुग पानी।। सभी हिंदू सहोदर हैं।