राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव : इस तरह फैला नृत्यों का जादू

इंडिया एज न्यूज नेटवर्क

रायपुर : राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के दूसरे दिन देश-विदेश से आये कलाकारों के बीच लोक नृत्य की प्रतियोगिता उपरांत कार्यक्रम की समाप्ति हुई। कार्यक्रम में मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के अलावा पर्यटन मंत्री श्री ताम्रध्वज साहू, संस्कृति मंत्री श्री अमरजीत भगत, उद्योग मंत्री श्री कवासी लखमा, आदिम जाति विकास मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह टेकाम तथा हरियाणा के सहकारिता मंत्री सहित अनेक जनप्रतिनिधि कार्यक्रम में उपस्थित थे।

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव परंपरा और आधुनिकता का संगम बना। मुख्यमंत्री के दर्शक दीर्घा में आगमन के साथ ही छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया के नारों से कार्यक्रम स्थल गूंज उठा। इसी बीच मालदीव के कलाकारों द्वारा नृत्य प्रदर्शन के बाद हिंदी बॉलीबुड गाने ने सभी को आश्चर्य चकित कर दिया। इसके बाद बारी आयी सर्बिया की राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में करीब 4 हजार किलोमीटर दूर सर्बिया से आये 10 सदस्य कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नृत्य कौशल को देख दर्शक काफी उत्साहित हूये। सर्बिया के कलाकार ट्रेडिशनल डांस का प्रदर्शन किए। सर्बिया के कलाकारों ने प्यानो और शहनाई नुमा वाद्य यंत्रों से अलग-अलग धुनों में मधुर संगीत लहरियां प्रस्तुत कर दर्शकों का मनोरंजन किया। मधुर धुन की ताल पल पर महिला और पुरुष कलाकारों के थिरकते कदम आकर्षक दृश्य तो वही पुरुष फर का कैप लगाए एक हाथ मे डंडा पकड़ कर नृत्य किये। इन कलाकारों ने ‘‘सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया’’ का उदघोष कर मुख्यमंत्री सहित अतिथियों का अभिवादन किया।

न्यूजीलैंड के आदिवासी कलाकार अपनी पारम्परिक वेशभूषा में मंच पर पहुंचे। अपने विशिष्ट रीति रिवाज के अनुसार नृत्य की प्रस्तुति देने के पहले छत्तीसगढ़ को मित्र बनने की परंपरा को प्रतीक के रूप में निभाया। उन्होंने अपनी भाषा में छत्तीसगढ़ के साथ मित्रता की घोषणा की। न्यूजीलैंड के कलाकारों ने भी किया ‘‘छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया’’ का नारा लगाकर छत्तीसगढ़वासियो और अतिथियों का अभिवादन किया। न्यूज़ीलैंड की टीम द्वारा हाका लोकपरम्परा में छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि से मैत्री और छत्तीसगढ़ की भूमि वंदना की गयी।

मंगोलिया के कलाकार अपनी पारम्परिक वेश भूषा में संगीत की तेज धुन पर ऊर्जा और उत्साह के साथ जोश से ओतप्रोत लयबद्ध नृत्य की प्रस्तुति देकर दर्शकों के बीच रोमांच जगाने में सफल रहे। गुलाबी ठंड में भी लोग डटे रहे। मंगोलियाई कलाकारों द्वारा शांति और समृद्धि का पारंपरिक नृत्य प्रस्तुत किया गया।

इंडोनेशिया के कलाकारों ने के पारम्परिक नृत्य के प्रारम्भ में ही दर्शकों ने हर्ष ध्वनि कर उनका स्वागत किया। रंग बिरंगे परिधान, श्रृंगार के साथ उनकी नृत्य शैली बरबस ही दर्शकों को मुग्ध की। रंगबिरंगी रोशनी, चमकदार पोशाक में तेजी से बदलती संगीत की धुन पर आसान से स्टेप के साथ थिरकते कलाकारों के साथ दर्शक भी नृत्य संगीत का भरपूर आनंद लिए।

तीन पीढ़ियों ने दी धनगरी गजा नृत्य की प्रस्तुति

महाराष्ट्र के धनगरी गजा नृत्य में तीन पीढ़ियों ने भाग लेकर नृत्य की मनमोहक छवि प्रस्तुत की। राजधानी रायपुर के साइंस कॉलेज मैदान में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में महाराष्ट्र के सांगली क्षेत्र में रहने वाली धनगर जनजाति धनगरी गजा नृत्य प्रस्तुत कर समा बांध दिया। इस प्रस्तुति में कलाकारों की तीन पीढ़ियों ने हिस्सा लिया। धनगरी गजा नृत्य की प्रस्तुति के लिए पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी श्री अनिल भीमराव के पूर्वजों को सम्मानित कर चुके हैं। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के मुख्य मंच से धनगरी गजा नृत्य के दल प्रमुख श्री अनिल भीमराव उनके भाई, पिता और चाचा सहित 16 कलाकारों ने प्रस्तुति दी।

धनगरी गजा नृत्य में भगवान श्री बीरोबा की वंदना की जाती है, जिसे भगवान शंकर का रूप मानते हैं। इसे अपने क्षेत्र में गुढ़ीपरवा से इसकी शुरूआत करते हैं और सात दिनों तक रात्रि को यह नृत्य करते हैं। जब यह नृत्य अपने क्षेत्र में की जाती है तो वे पालकी लेकर मंदिर के चारो तरफ भ्रमण करते हैं। इस लोक नर्तक दल के सदस्य आकर्षक परिधान पहनते हैं, जिसमें एक विशेष पगड़ी पहनी जाती है। साथ ही फड़की (घेरवाला विशेष वस्त्र) शर्ट, पैरों में घुघरू और दोनों हाथों में रूमाल होता है। इनके वाद्ययंत्र ढोल, कायता, बांसुरी शामिल हैं।

दल प्रमुख श्री अनिल भीमराव कोड़ेकर कहते हैं कि मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल पर छत्तीसगढ़ में किया गया आयोजन वह बहुत प्रशंसनीय है। इससे देश-दुनिया आदिवासी संस्कृति को नई पहचान मिल रही है। उन्होंने कहा कि यहां आकर उन्हें और उनके साथियों अपेक्षा से ज्यादा यहां सम्मान मिला है। धनगरी गजा नृत्य दल के सदस्य ने बताया कि उनकी जनजाति का प्रमुख भोजन ज्वार बाजरा की रोटी होती है। वे चावल का उपयोग कम करते हैं पर छत्तीसगढ़ में आने के बाद यहां का जो भोजन ग्रहण करने मिला वह बड़ा स्वादिष्ट लगा। सबसे अच्छी बात है कि यहां के रहवासी बड़े सहज और सरल है। उन्हें यहां अपनापन का अनुभव हो रहा है।

जब पार्वती रूठ गईं तो उन्हें ऐसे मनाया गया

जब माता पार्वती रूठ गईं तो उन्हें कैसे मनाया गया। इसकी सुंदर प्रस्तुति धनगरी गजा लोकनृत्य के माध्यम से महाराष्ट्र के सांगली के लोककलाकारों ने आज राजधानी रायपुर में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के मंच पर दी। इस सुंदर नृत्य की शुरूआत बांसुरी की मधुर तान से हुई। झांझ की मधुर आवाजों के बीच लोककलाकारों ने नृत्य के माध्यम से बताया कि जब माता पार्वती रूठ गईं तो उन्हें मनाने के लिए किस तरह से सुंदर नृत्य संगीत की प्रस्तुति की गई और इसके चलते माता प्रसन्न हो गईं। इस परंपरागत नृत्य का प्रमुख आकर्षण ध्वज छत्र में है। सुंदर सुसज्जित ध्वजछत्र अपने खूबसूरत रंगों में जब नर्तकों के हाथों में आये तो एक शानदार जुलूस का दृश्य पैदा हुआ। ऐसा दृश्य जैसे कोई राजपरिवार किसी खास उत्सव के लिए हाथी पर सवार होकर निकला हो। इसी तरह की सजधज इस नृत्य में है। सांगली के लोककलाकार पीढ़ी दर पीढ़ी यह नृत्य कर रहे हैं। खास बात यह है कि इसमें छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सभी शामिल हैं। ढोल की ध्वनि से यह दृश्य और भी सजीव हो उठा। लोकनृत्य में आखरी दृश्य ऐसा है कि इतने खूबसूरत और भव्य तरीके से मनाने के बाद माता पार्वती मान गईं। लोकजीवन में भगवान शिव और माता पार्वती के संवाद और अनेक लोकश्रुतियां प्रचलित हैं जिनको आधार बनाकर महाराष्ट्र के सांगली में यह खूबसूरत धनगरी गजा नृत्य किये जाने की परंपरा है।

उत्तराखंड के कलाकारों ने छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया गीत गाकर की अपने नृत्य की शुरूआत

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के दूसरे दिन विभिन्न राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों व विदेशों के कलाकारों ने अपने अपने नृत्य के माध्यम से लोगों का जमकर मनोरंजन किया. इस दौरान उत्तराखंड राज्य के कलाकारों के द्वारा हारूल नृत्य का प्रदर्शन किया गया.

इस नृत्य में ढोल व खंजरी प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं. हारुल नृत्य मेला,शादी- विवाह व खुशियों के अवसर पर करते हैं . इसमें अर्ध चंद्राकार स्थिति में नृत्य की प्रस्तुति होती है जिसमें हाथी डोला प्रमुख आकर्षण का केंद्र होता है.

हारुल नृत्य मूलत: उत्तराखंड के जौनसारी जनजातियों द्वारा किया जाता है जो पाण्डवों के जीवन पर आधारित है. इस नृत्य में रमतुला नामक वाद्ययंत्र अनिवार्य रुप से बजाया जाता है.

उत्तराखंड के कलाकारों ने मंच पर आकर सबसे पहले छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया बोल के साथ गीत गाकर नृत्य की शुरूआत की. इसमें पुरूष एवं महिलाएं संयुक्त रूप से नृत्य करते हैं. इन कलाकारों ने आज अपने नृत्य के प्रदर्शन से न सिर्फ अपनी सभ्यता व संस्कृति से लोगों का परिचय कराया बल्कि उनका दिल भी जीता.

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में शामिल होकर उत्साहित हैं उत्तराखंड के कलाकार

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में दूसरे दिन भाग लेने वाले कलाकारों में उत्तराखंड के आदिवासी कलाकार भी शामिल हुए। नृत्य महोत्सव में उन्होंने उत्तराखंड के लोक-नृत्य हारुल की प्रस्तुति दी। उत्तराखंड के जौनसार जनजातियों के द्वारा यह नृत्य किया जाता है। लोककथाओं पर आधारित इस नृत्य के माध्यम से पांडवों के शौर्यगान किया जाता है।

2 नवंबर को दी गई इस प्रस्तुति में उत्तराखंड के इन कलाकारों ने मंच पर ही नृत्य के दौरान अपने सिर पर केतली रखकर चाय तैयार की। इसके अलावा जौनसार जनजातियों द्वारा प्रस्तुत इस नृत्य में हाथी पर बैठे एक व्यक्ति ने अस्त्र के माध्यम से कला का प्रदर्शन किया। नृत्य के दौरान उपयोग किए गए इस हाथी को कलाकारों ने अपने हाथ से तैयार किया था।

हारूल नृत्य प्रस्तुत करने वाले उत्तराखंड के इन कलाकारों ने बातचीत के दौरान बताया कि- छत्तीसगढ़ में आकर वे बहुत ही उत्साहित हैं। टीम के लीडर नंदलाल भारती ने कहा- कि सभी राज्यों की सरकारों को छत्तीसगढ़ सरकार की ही तरह आदिवासी कलाकारों की सुध लेनी चाहिए। कलाकारों को छत्तीसगढ़ सरकार मान-सम्मान दे रही है। दूसरे राज्यों को भी इस पर ध्यान देना चाहिए।

आदिवासी कलाकार संस्कृति का गौरव होते हैं। वे संस्कृति, विरासत, जंगल, पानी और धरोहरों को बचाने का काम करते हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार को मैं धन्यवाद देना चाहेंगे कि उन्होंने इतनी सुंदर पहल की है। छत्तीसगढ़ के लोग जब भी हमारे प्रदेश में आएंगे तो यही मान-सम्मान उन्हें हम भी देंगे।

सिर पर केतली रखकर चाय बनाते देखा है, हारूल नृत्य में ऐसा होता है

उत्तराखंड में जौनसार जनजाति महाभारत की कथाओं पर आधारित लोककथाओं का हमेशा से प्रदर्शन करती आई है। इसमें पांडवों के शौर्य का यशोगान किया जाता है और इसे आकर्षक नृत्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें वीरगाथाओं का प्रदर्शन भी वीरोचित क्रियाओं द्वारा किया जाता है। आज हुई इसकी प्रस्तुति में एक लोक कलाकार ने अपने सिर पर केतली रखकर आग लगाकर चाय तैयार की। इस दृश्य को देखकर दर्शक चकित रह गये। इसके साथ ही अर्धचंद्राकर गोले में भगवान गणेश की पूजा की गई।

उल्लेखनीय है कि भगवान श्री राम के वनवास पर लौटने पर अयोध्या में दीप जलाये गये थे और दीपावली के अवसर पर ऐसे दीप भारतीय संस्कृति में जलाये जाते हैं। यह खूबसूरत अनुष्ठान हारूल नृत्य का भी हिस्सा जौनसार जाति के इस खूबसूरत हारूल नृत्य में हाथी पर बैठा व्यक्ति हाथों से अस्त्र घूमाता है और समृद्धि के प्रतीक पुष्प और अक्षत जनसमूह पर छिड़कता है।

उल्लेखनीय है कि जौनसार जाति महाभारत की कथाओं से बहुत गहराई से जुड़ी हुई है और महाभारत के कथानायक पांडवों को अपना आदर्श मानती हैं। पांडवों की अनुश्रुतियां ही लोककथा और हारूल नृत्य के माध्यम से वे प्रदर्शित करती हैं। नृत्य की खासियत रमतुला नामक वाद्ययंत्र है जिससे लोक नृत्य और भी मधुर हो जाता है।

असम के छत्तीसगढ़ियों ने बिखेरी कुरूख करम नृत्य की मनमोहक छटा

असम में वर्षों से निवासरत छत्तीसगढ़ियों ने कुरूख करम नृत्य प्रस्तुत कर लोगों का मन मोह लिया। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के साईंस कॉलेज मैदान में चल रहे राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के मुख्य मंच पर पहली बार नृत्य प्रस्तुति का अवसर मिला।
छत्तीसगढ़ से लगभग 4-5 पीढ़ी पहले असम गए लोगों को आज भी छत्तीसगढ़ की संस्कृति से जुड़ाव है। वे अपनी कला और संस्कृति को आज भी नहीं भूले हैं। इतनी दूर असम में बसे होने के बावजूद भी छत्तीसगढ़ से उन्हें वही प्रेम और लगाव है जैसा उनके पूर्वजों का था। इसी लगाव की वजह से राजधानी में चले रहे राष्ट्रीय आदिवासी महोत्सव में शामिल होने यहां पहुंचे।

असम में निवासरत छत्तीसगढ़ियों ने यहां मुख्य मंच पर कुरूख करम नृत्य की मनोहारी प्रस्तुति दी। यह नृत्य पंथी और करमा का मिला-जुला रूप है। नृत्य समूह की मुखिया सुश्री सुरभि सिंह ने बताया कि 4-5 पीढ़ी पूर्व उनके पूर्वज छत्तीसगढ़ से असम राज्य के चाय बागान में काम करने पहुंचे थे। अब वे असम के मूल निवासी बन चुके हैं। छत्तीसगढ़ और असम का रहन-सहन, आचार-विचार, श्रृंगार, पहनावा लगभग एक दूसरे से मिलता जुलता है।

सुश्री सुरभि सिंह ने बताया कि असम में माथे पर लगाने वाली बिंदी को टिक्का, पायल को बाजोर, गले में पहनने वाले गहने को ठोसा और चंदमाला कहते हैं। इसी प्रकार खान-पान में आटा चावल आटा से बनने वाली चीला को चीरकअप, फरा को बरकसमा के नाम से जाना जाता है। स्वाद और बनाने का तरीका भी लगभग मिलता-जुलता है। उन्होंने बताया कि कुरूख करम नृत्य बस्तर के करमा नृत्य से मिलता-जुलता है। उन्होंने सभी कलाकारों की ओर से मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव प्रशंसनीय है। इस आयोजन से आदिवासियों की संस्कृति को नई पहचान मिल रही है। इस आयोजन में शामिल होकर उन्हें जो सम्मान दिया गया है, इसके लिए उन्होंने आभार व्यक्त किया है। छत्तीसगढ़ सरकार की इस पहल से असम में रहने वाले छत्तीसगढ़िया लोगों को भी एक बार फिर छत्तीसगढ़ की कला-संस्कृति से जुड़ने का मौका मिला है।

भुंजिया जनजाति के नर्तक दल ने दी वैवाहिक नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति

रायपुर के साईंस कॉलेज मैदान में चल रहे राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में आज शाम भंुजिया जनजाति के नर्तक दलों ने वैवाहिक अवसर पर किए जाने वाले नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति दी, जिसका दर्शकों ने आनंद लिया और ताली बजाकर नर्तक दल की प्रस्तुति को सराहा। भुंजिया के नृत्य में उनकी पूरी संस्कृति झलकती है। नृत्य के दौरान पुरूष हाथों में तीर-कमान थामें होते हैं, जबकि महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में होती है। भुंजिया एक ऐसी विशेष पिछड़ी जनजाति समुदाय है, जिसे छत्तीसगढ़ सरकार ने गोद लिया है। इस जाति के लोग छत्तीसगढ़ के गरियाबंद, महासमुंद और धमतरी जिला तथा ओड़िशा के कुछ में क्षेत्रों में रहते हैं। इनकी रहन-सहन, वेषभूषा या यूँ कहें कि पूरी संस्कृति ही औरों से बहुत अलग है।

आदिकाल से भुंजिया समुदाय के लोग जंगल तथा पहाड़ों पर निवास करते आ रहे हैं। इन्हें जंगलों से ही अपनी आजीविका चलाने के लिए पर्याप्त मात्रा में सब कुछ मिल जाता है, जैसे कि लकड़ी, फल, फूल, रस्सी, जड़ी-बूटी, पानी, शुद्ध हवा आदि। इस समुदाय के लोग अपनी ही दुनिया में खुश रहना चाहते हैं, बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं रहने के कारण इन लोगों का प्रकृति से अत्यधिक लगाव रहता है। भुंजिया समुदाय के लोग प्राकृतिक चीजों से श्रृंगार करना पसंद करते हैं, जैसे- महुआ, गुंजन, हर्रा आदि के फूलों की माला। महिलाएं अपने बालों को सजाने के लिए मयूर पंख या जंगल के फूलों का इस्तेमाल करती हैं। खाने में भी यह समुदाय कंद-मूल, फल-फूल एवं शिकार करके अपना जीवन यापन करते आ रहे हैं। शादी-विवाह, अतिथि के स्वागत आदि खुशी के पलों में ये नृत्य किये जाते हैं। इस नृत्य में भुंजिया लोगों को साल के पत्ते, तेंदू के पत्ते, महुआ के फूल आदि चीज़ें लगाए पूरे वेशभूषा एवं श्रृंगार के साथ देखा जा सकता है। ये अपने हाथों में अपने पूर्वजों से मिले तीर-कमान लिए रहते हैं। सामाजिक कार्यक्रमों, शादी विवाह आदि में तीर चलाने की प्रथा है।

डाना वाद्य यंत्र के साथ मेघालय के वांगला नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति

मेघालय की गारो जनजातियां भगवान के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए यह नृत्य करती हैं। प्रकृति पूजन पर आधारित नृत्य अक्टूबर-नवंबर माह में किया जाता है।

इस नृत्य में स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। स्त्रियां रेफ़ल वस्त्र पहनती हैं एवम पुरूष कांथा नामक वस्त्र पहनते है। सिर पर मुर्गे का पंख धारण किया जाता है। इसका प्रमुख वाद्ययंत्र डाना है।

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में मेघालय राज्य की गारो जनजातियों का सुंदर वांगला नृत्य भी देखने को मिला। इस नृत्य में स्त्रियां रेफल वस्त्र पहनती हैं और पुरुष कांथा वस्त्र पहनते हैं। गारो जनजाति का यह नाटक परंपरागत प्रकृति पूजन पर आधारित है और अक्टूबर नवंबर माह में किया जाता है। वांगला नृत्य की विशेषता यह है कि यह डाना वाद्य यंत्र के साथ किया जाता है। डाना वाद्य यंत्र अपनी सुमधुर ध्वनियों में जैसे जैसे आगे बढ़ता है। वांगला नृत्य के कलाकारों की थिरकन भी बढ़ जाती है। गारो जनजाति का यह नृत्य ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए किया जाता है। लोककलाकार अपने नृत्य के माध्यम से प्रकृति और ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं। यह नृत्य खास तौर पर गारो जनजाति की सजावट और वस्त्र विन्यास के उनके खास तरीके को जानने के लिए भी बढ़िया माध्यम है।

पहली बार आदिवासियों को मिला इतना बड़ा मंच : तेलंगाना के आदिवासी कलाकार

राज्योत्सव के दूसरे दिन राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में पहुंचे कलाकारों में शामिल हुए तेलंगाना के कलाकारों ने लंबाड़ी नृत्य प्रस्तुत किया। लंबाड़ी तेलंगाना के नालगोंडा जिले में किया जाता है। लंबाड़ी नृत्य नालगोंडा के बंजारा समुदायों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य के माध्यम से बंजारा लोग अपनी जीवनशैली का प्रदर्शन करते हैं।

लंबाड़ी नृत्य को करने वाली महिला कलाकार तेलंगाना का प्रसिद्ध घाघरा-चोली पहनती हैं। पारंपरिक रूप से ये महिलाएं पैरों में गज्जल यानी कि घुंघरू, गले में कंटल (माला) और हाथों में सफेद रंग का चूड़ी पहनती हैं। ये चूड़ी हाथी दांत के बने होते हैं। इन्हें गाजरू कहा जाता है।

बता दें अपनी बारी का इंतजार कर रहे तेलंगाना के इन कलाकारों ने छत्तीसगढ़ में आयोजित आदिवासी नृत्य महोत्सव से जुड़े अपने अनुभव साझा किए। तेलंगाना के नालागोंडा जिले से पहुंचे इन कलाकारों के टीम लीडर सी एच नागार्जुन ने कहा कि पहली बार आदिवासियों को इतना बड़ा मंच देना सम्मान की बात है, मुझे छत्तीसगढ़ आकर खुशी हो रही है। भारत के दूसरे राज्यों को भी ऐसा कुछ करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में आकर उन्हें अच्छा लग रहा है। ऐसा पहला मौका है जब उन्हें दूसरे राज्यों और देश के कलाकारों के कला के बारे में जानने का अवसर मिल रहा है। आदिवासी कलाकारों को मौका देने का यह एक अच्छा माध्यम है। बहुत कम होता है कि आदिवासियों को मौका मिले। वेस्टर्न कल्चर की वजह से आदिवासी कला संस्कृति सिमट रही थी। जिनके संरक्षण का काम छत्तीसगढ़ सरकार कर रही है।

छत्तीसगढ़ सरकार का धन्यवाद देते हुए नागार्जुन ने कहा कि हर ग्रामीण, हर आदिवासी को मौका मिलना चाहिए।

नर्तकी के साथ नाचती है लौ, ऐसा अद्भुत नृत्य है होजागीरी

कल्पना कीजिए। दो कलशों में एक महिला अपना संतुलन बनाकर लेटी है और इसके ऊपर एक महिला नृत्यरत है। इस महिला के ऊपर एक बोतल है। बोतल में एक दीपक है जो जल रहा है। इस नृत्य के संतुलन को महसूस करना ही कठिन है लेकिन इस संतुलन को निभाते हुए शानदार नृत्य प्रदर्शन त्रिपुरा की लोककलाकारों ने किया। होजागीरी नृत्य को जिसने भी देखा, संतुलन और नृत्य कला की तारीफ करने से नहीं चूका।

होजागीरी त्रिपुरा में दीपावली मनाने का खास नृत्य है। लोग घरों में तो दीये जलाते हैं लेकिन दीवाली जैसे बड़े त्योहार का आनंद और भी बेहतर तरीके से लिया जा सकता है इसके लिए वे होजागीरी करते हैं। इस नृत्य में लोककलाकार अपने सिर पर बोतल रखते हैं और इस पर दीया जलाते हैं। सूपा पर भी वे ऐसा ही करते हैं। होजागीरी नृत्य के माध्यम से हमारी लोकसंस्कृति की सुंदर झलक मिलती है। इसमें स्थानीय उपयोग की वस्तुएं हैं और कलाकार का शानदार शारीरिक संतुलन है जिससे वो अपने नृत्य को साधते हैं। यही नहीं उनके हाथों में दो थालियां भी होती है। इसके साथ ही वेशभूषा भी बड़ी सुंदर है जो त्रिपुरा की खास संस्कृति को बताती है। छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के माध्यम से एक मंच पर राज्य सरकार देश भर में बिखरे लोकसंस्कृति के रंग दिखा रही है।

भाई के दीर्घायु के लिए दालखाई नृत्य के माध्यम से होती है वनदेवी की प्रार्थना

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में ओडिशा के दालखाई नृत्य के कलाकार अपनी खास वेशभूषा में आये। सुंदर गोदने से सुसज्जित लोक कलाकारों के नृत्य प्रदर्शन को देखकर लोग चकित रह गये। संबलपुरी परिधान में इन कलाकारों ने अपना पारंपरिक लोकनृत्य प्रस्तुत किया। यह अनोखा लोक नृत्य भाई के दीर्घायु कामना के लिए बहनों द्वारा किया जाता है। बहनें मानती हैं कि वन देवी उनके भाई को आरोग्य और दीर्घायु होने का वर दे सकती हैं। उनकी प्रार्थना के लिए परंपरागत तरीके से श्रृंगार करती हैं और वन देवी से वर मांगती है। वनदेवी की पूजा के साथ ही वे पेड़ और पत्तियों की पूजा भी करती है। एक तरह से यह नृत्य प्रकृति से जनजातीय समाज के सुंदर संबंध का प्रतीक भी है।

नृत्य की सबसे बड़ी खासियत इसका दुनदुनी वाद्य यंत्र है जिसकी सुमधुर धुन से नृत्य खास तौर पर आकर्षित हो जाता है। संबलपुरी साड़ियां और वस्त्रों के चटख रंग नृत्य की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं।

दालखाई नृत्य के कलाकारों के गोदना भी खास रोचक रहे। जैसे जनजातीय कला में सुंदर चित्रों को सजाने में प्रतीकों का उपयोग होता है वैसे ही प्रतीक गोदना में दिखे। महोत्सव के दर्शकों के लिए दालखाई नृत्य देखना अद्भुत अनुभव था।

लंबाडी नृत्य तेलंगाना के लम्बाडी जनजाति का एक विशेष प्रकार का नृत्य है

लंबाडी नृत्य तेलंगाना के लम्बाडी जनजाति का एक विशेष प्रकार का नृत्य है इस नृत्य में महिला नर्तक अच्छी फसल की कामना के लिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए नृत्य करती हैं। विवाह एवं अन्य अवसरों पर अपनी खुशी प्रकट करने के लिए यह नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में डफ और तुकता वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है।

प्रकृति को धन्यवाद देते हुए संथाली नृत्य की अद्भुत प्रस्तुति

देवी आराधना पर आधारित यह नृत्य प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए किया जाता है

पौष माह किया जाने वाला यह पारम्परिक नृत्य विवाह, फसल कटाई एवं अन्य विशेष अवसरों पर किया जाता है

राजस्थान : नृत्य-गैर-घूमरा नृत्य

गैर-घूमरा नृत्य आदिवासी भील-मीणों द्वारा किया जाने वाला पारंपरिक नृत्य है जिसमें स्त्री एवं पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यद्यपि इनके घेरे अलग अलग होते है। घेरे के अंदर घेरा इस नृत्य की खास विशेषता है। इसके भीतरी घेरे में महिलाएं होती हैं जबकि बाहर के घेरे में पुरुष नर्तक रहते हैं। भीतरी घेरे में जो महिलांए नृत्य करती हैं वह ”घूमरा“कहलाता है जबकि उसके बाहर पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य “गैर“ नाम से जाना जाता है। दोनों घेरे के नर्तक जब वाद्य की लय तेज हो जाती है तो अपना पाला बदलते हुए नृत्य करते हुए एक दूसरे के घेरे में पहुंच जाते हैं। ढोल, मादल तथा झालर इस नृत्य के प्रमुख वाद्य हैं।

नये साल का उत्सव मनाते हैं तमांगशेलो नृत्य के साथ, सिक्किम के कलाकारों ने प्रस्तुत किया

सिक्किम में नये साल का सेलिब्रेशन तमांगशेलो नृत्य के साथ होता है। नये साल के अवसर पर लोग यह खूबसूरत नृत्य करते हैं। इस नृत्य की खासियत इसमें उपयोग होने वाले वाद्ययंत्र हैं। यह वाद्ययंत्र भगवान बुद्ध के प्रतीक के रूप में माने जाते हैं। इन वाद्ययंत्रों के माध्यम से तमांगशेलो नृत्य की सुंदर प्रस्तुति होती है। खास बात यह है कि नृत्य का आरंभ कोयल की कुहु कुहु से होता है। इस तरह यह नृत्य प्रकृति में रमा हुआ नृत्य है। साथ ही बौद्ध धर्म की आध्यात्मिक परंपराओं को भी अपने भीतर समेटे हुए हैं।

नृत्य की विशेषता इसके चटखीले रंगों की वेशभूषा भी है। सिक्किम की वेशभूषा इसमें पूरी तरह निखर कर सामने आती है। साथ ही वाद्ययंत्रों के साथ सुंदर डांस स्टेप इस नृत्य के आनंद में खासी वृद्धि करते हैं। विशेष रूप से डंपू नामका वाद्ययंत्र इस पूरे नृत्य की खूबसूरती में खास तौर पर इजाफा करता है।

मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में देश के विविध राज्यों के लोक रंग की झलक मिल रही है। नृत्य के साथ ही क्षेत्र के प्रचलित लोकविश्वासों की झलकी भी देखने में आ रही है।

सिक्किम से आए लोक कलाकारों ने तमांग सेलो नृत्य की प्रस्तुति से मोहा लोगों का मन

तमांग भारत के सिक्किम राज्य और पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में रहने वाली एक मुख्य जनजाति है। यह जनजाति इन दोनों क्षेत्रों के नेपाली समाज का एक बहुत महत्वपूर्ण अन्य अंग है। जिन्होंने नेपाली प्रस्तुतिकारी कलाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया हुआ है। तमांग गीतों को तमान भाषा में हवाई कहा जाता है। ट्राइबल फेस्ट 2022 में सिक्किम से आए तमांग दल द्वारा अपने पारंपरिक वेशभूषा में एक अत्यधिक लोकप्रिय नृत्य प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसे बोलचाल में डम्पू नाच बहु कहा जाता है। डम्पू वस्तुतः एक वाद्य यंत्र है जिसका इस नृत्य के अवसर पर उपयोग किया जाता है।

तमांग सेलो नृत्य सामान्य रूप से तमांग सेलो के नाम से जाना जाता है

तमांग सेलो नृत्य सामान्य रूप से तमांग सेलो के नाम से जाना जाता है जिसमें ऊर्जा और शक्ति के प्रदर्शन की भरमार रहती है। यह समूचे सिक्किम राज्य में एक बहुत ही लोकप्रिय नृत्य है जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही भाग लेते हैं। इसे लो चा अर्थात नव वर्ष /न्यू ईयर सेलिब्रेट करने के दौरान किया जाता है।इस नृत्य में डम्पू के अतिरिक्त उपयोग में लाए जाने वाले वाद्य यंत्रों में मादल और तुंगना भी सम्मिलित हैं। इसमें उपयोग की जाने वाली 32 श्रेणी के वाद्य यंत्रों को भगवान बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।

उड़ीसा से आए लोक कलाकारों ने दी घुड़का नृत्य की प्रस्तुति

आदिवासी महोत्सव एवं राज्योत्सव में उड़ीसा से आए लोक कलाकारों ने घुड़का नृत्य की प्रस्तुति दी। उड़ीसा की घुमंतु जनजाति लकड़ी और चमड़े से बने वाद्ययंत्रों के साथ मनमोहक प्रस्तुति दी। राजधानी रायपुर के साइंस कॉलेज मैदान में राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में पश्चिमी ओडिसा के कलाकारोंने अपने परंपरागत् परिधानों में सज-धजकर घुड़का गीत गाते हुये नृत्य किया। इस नृत्य में लकड़ी और चमड़े से बने वाद्य यंत्र घुड़का का उपयोग किया जाता है। नृत्य में पुरूष और महिला दोनों शामिल होते है। नृत्य समूह की महिलायें कपटा (साड़ी), हाथों में भथरिया और बदरिया, गले में पैसामाली, भुजाओं में नागमोरी पहन कर नृत्य करती है। इसी प्रकार पुरूष लंगोट (धोती) और सिर में खजूर की पत्ती से बनी टोपी विशेष रूप से पहनते है। काजल से अपने चेहरे पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां नर्तक बनाते हैं। घुड़का जनजाति घुमन्तु प्रजाति है, इस नृत्य का प्रदर्शन वे जंगल से बाहर भ्रमण के दौरान आम लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यह जनजाति भोजन से लेकर अन्य जरूरतों के लिए पूरी तरह वन संसाधनों पर निर्भर रहती है। ये अपने परंपरागत् देवी-देवाताओं में गहरी आस्था रखते हैं।

विवाह के अवसर पर होता है लद्दाख का बल्की नृत्य, पारंपरिक विवाह समारोहों की सुंदरता को दिखाने वाला नृत्य

कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश में विभिन्न संस्कृतियों के रोचक नृत्य हैं। इन सबकी जीवंत प्रस्तुति राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में हो रही है। देश के सबसे शीर्ष हिस्से लद्दाख से आये कलाकारों ने बल्की नृत्य की प्रस्तुति दी। यह नृत्य लद्दाख में विवाह समारोहों के अवसर पर किया जाता है। विवाह में अनेक तरह की रस्म होती है। इन सभी रस्मों की सुंदर प्रस्तुति आज लद्दाख से आये लोककलाकारों ने की। पहाड़ी क्षेत्र के अनुरूप खास तरह की वेशभूषा और वाद्ययंत्रों के माध्यम से दी गई प्रस्तुति से लद्दाख का लोकजीवन दर्शकों के आँखों के सामने जीवंत हो गया।

नृत्य में दो पक्ष थे वर पक्ष और वधु पक्ष। दोनों ही पक्षों ने संगीतमय प्रस्तुति दी। बल्की नृत्य को देखकर यह महसूस होता है कि विवाह के अवसर पर होने वाले अनुष्ठान आम जनजीवन में कितनी गहराई से बसे हुए हैं और लोगों को आनंदित करते रहे हैं। बल्की नृत्य में लोगों ने लद्दाख के स्थानीय वाद्ययंत्रों की लोकधुनें सुनीं। सदियों से यह धुनें लोकविश्वास का हिस्सा रही हैं।

मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के माध्यम से लोग हमारी राष्ट्रीय लोकसंस्कृति की खूबसूरती और वैविध्य को महसूस कर रहे हैं और देख पा रहे हैं कि भारत अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं से कितना समृद्ध हैं।

झूम खेती की तैयारी का दृश्य दिखाया मणिपुर के कलाकारों ने खरिमखरा नृत्य से

जनजातीय क्षेत्रों में झूम खेती होती थी। झाड़ियों को आग लगाकर साफ किया जाता था और खेती की जमीन तैयार होती थी। यह पूरी प्रक्रिया श्रमसाध्य थी लेकिन उत्सव का प्रतीक भी थी क्योंकि खेती ही लाइवलीहुड का अवसर प्रदान करती थी। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव ने मणिपुर के कलाकारों ने खरिमखरा नृत्य के माध्यम से झूम खेती की तैयारी को सजीव किया। इसे डांस आफ लाइवलीहुड भी कहा जाता है। नृत्य में दिखाया गया कि कैसे खेती के लिए उपयोगी जमीन चिन्हांकित होती थी, फिर इसे तैयार किया जाता था और बीज रोपा जाता था। इस पूरी प्रक्रिया को खरिमखरा नामक सुंदर नृत्य से मणिपुर के लोककलाकारों ने प्रस्तुत किया। यह खुखरई जिले के निवासी हैं। नृत्य की खास विशेषता है कि इसमें घुटने में पहने हुए आभूषणों से तालबद्ध धुन निकलती है। स्टेप्स जितने सटीक बैठते हैं आभूषण से निकलने वाली धुन भी उतनी ही सटीक होती है। खरिमखरा नृत्य कृषि संस्कृति का उत्सव है और अपने श्रम के माध्यम से जमीन तैयार करने का अद्भुत उत्साह भी इससे झलकता है जो नृत्य रूप में और भी आकर्षक हो जाता है।

राजस्थान के कलाकारों ने दी चकरी नृत्य की प्रस्तुति

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव एवं राज्योत्सव राजस्थान से कलाकारों ने चकरी नृत्य की प्रस्तुति दी, लोगों ने इस नृत्य का जमकर आनंद लिया और कलाकारों का तालियों से उत्साह बढ़ाया। चकरी नृत्य (हाड़ौती) महिला प्रधान नृत्य है। तेज रफ्तार के साथ नृत्य के समय चक्कर काटने के कारण इसे चकरी नृत्य कहते हैं। हाड़ौती अंचल में किए जाने वाले इस नृत्य में कंजर जाति की अविवाहित युवतियाँ भाग लेती हैं। बेड़िया तथा कंजर जाति की महिलाओं दवारा यह नृत्य किया जाता है। बूँदी में कजली तीज के मेले पर मुख्यत यह नृत्य आयोजित किया जाता है।

चकरी लोक नृत्य राजस्थान का एक लोकप्रिय एवं पारंपारिक लोक नृत्य है जो कोटा बांरा हाड़ोती अंचल क्षेत्र की महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा किया जाता है इस नृत्य को जब राज एंव महाराजा युद्ध जीत कर आते थे तब अपने युद्ध जीतने कि खुशी में बिजोरी कांजरी को बुलाकर चकरी नृत्य को करवाते थे खास विशेषता यह है कि इसमें महिलाओं द्वारा अस्सी कली का घाघरा चोली पहनकर कर सोलह सिंगार कर गोल गोल चक्कर लगाती है मगर उन्हें चक्कर नहीं आते हैं इसलिए इस नृत्य चकरी लोकनृत्य कहा जाता है और इस नृत्य में पुरुषों की अहम भूमिका रहती है जिसमें अपने वादक ढोलक मजीरा नगाड़ा आदि बजाकर उसकी धुन पर महिलाओं को नृत्य करवाते हैं इस नृत्य में खुशी का कोई भी पर्व को जैसे होली दीपावली शादी ब्याव संबंध सगाई आदि में किया जाता है।

खास असमिया वेशभूषा और सजावट की सुंदर झलक बोरो नृत्य में

राजधानी में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में देश भर की लोकनृत्य की प्रतिभाओं द्वारा प्रस्तुति की जा रही है। इसके माध्यम से न केवल इन राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों में प्रचलित नृत्यों के रूप दिखाई दे रहे हैं अपितु उनके आकर्षक और सुंदर परिधान और आकर्षक साजसज्जा की विशिष्टता भी झलक रही है। असमिया लोककलाकारों ने आज बोरो नृत्य की सुंदर प्रस्तुति दी। असम की खास डिजाइनर परंपरागत साड़ियों में परंपरागत रूप से सजी लोककलाकारों ने स्थानीय सुमधुर वाद्ययंत्रों के बीच बोरो नृत्य की प्रस्तुति दी। लोककलाकारों ने गले में मोतियां पहनी थीं और बालों में फूलों की सज्जा की थीं। पूरा असमिया वस्त्र विन्यास और सजावट की लोकपरंपरा दर्शकों के सामने सजीव हो उठी। चटख रंगों के साथ नृत्य की आकर्षक मुद्राओं ने दर्शकों के बीच समां बांध दिया। नृत्य की खास विशेषता इसकी लय थी। लय के साथ झूमते हुए लोक कलाकारों ने कृषि संस्कृति पर आधारित असम की लोककलाओं को दर्शकों के सामने जीवंत कर दिया।

मणिपुर के कलाकार “डान्स ऑफ़ लाइवलीहुड” का प्रदर्शन

बिना वाद्य यंत्रों के प्रयोग से यह नृत्य किया जा रहा है। यह झूम खेती की तैयारी का नृत्य है। वर्ष में जब भी उत्सव मनाना हो इसे किया जाता है।

आत्मा से संवाद का उत्सव है अरुणाचल का लोकनृत्य इगु, मृत्यु उपरांत उपवास कर संवाद किया जाता है मृतात्मा से

अरुणाचल की लोकसंस्कृति में मृत्यु के पश्चात आत्मा से संवाद लोकनृत्य के माध्यम से होता है। सामान्य मौत की स्थिति में परिजनों के मृत्यु के चार-पांच दिन तक उपवास रखा जाता है और इस अवधि में मृतात्मा से संवाद लोकनृत्य के माध्यम से होता है। यह संवाद इदुमिस्थि जनजाति द्वारा किया जाता है। अपने पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ यह संवाद किया जाता है। उल्लेखनीय है कि अनेक जनजातियों में मृतात्मा के साथ ऐसे संवाद की परंपरा रही है और बहुत समृद्ध परंपरा रही है। ऐतिहासिक रूप से भी मृत्यु संबंधी अनेक लोकमान्यताएं जनजातीय समुदाय में मिलती हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि इगु नृत्य का प्रदर्शन केवल सामान्य मौत में ही होता है। असामयिक रूप से किसी की मृत्यु हुई हो तो यह नृत्य नहीं होता। पारंपरिक अरुणाचल के परिधान के साथ और उनके खास वाद्ययंत्रों के साथ इगु का प्रदर्शन राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में हुआ। राजधानी में आयोजित इस महोत्सव में अरूणाचल के इस लोक नृत्य को लोगों ने खूब सराहा।

असम के बालमफा नृत्य की प्रस्तुति दी गई

बंसी की धुन पर आकर्षक वेशभूषा में महिला कलाकारों की प्रस्तुति

लाल पीले हरे परिधान, गले में मोती की माला और बालों को लाल रिबन से सहेजा गया है।

नरसिंह का मुखौटा लगा किया लोक नृत्य, महाराष्ट्र में मशहूर है सोंगी मुखौटा नृत्य

पौराणिक कथाओं में नरसिंह अवतार की कथा आती है जिसमें भगवान विष्णु नरसिंह का रूप लेकर हिरण्यकश्यप का वध करते हैं। यह कथा असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक है। इसी कथा को आधार बनाकर महाराष्ट्र में सोंगी मुखौटा लोकनृत्य किया जाता है। होली पर्व के बाद महाराष्ट्र में यह नृत्य किया जाता है और देवी की पूजा के साथ उत्सव मनाया जाता है। कथा में दो कलाकार नरसिंह का रूप धारण कर नृत्य करते हैं और ढोल पावरी तथा संबल वाद्य यंत्रों के माध्यम से पैदा हुई ध्वनि से कथा दर्शकों के समक्ष जीवंत हो जाती है।

इसके साथ ही नर्तक काल भैरव और बेताल के मुखौटे भी पहनते हैं जिससे लोक में प्रचलित बहुत सी कथाएं लोकनृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाती है। इसके साथ ही कलाकार पिरामिड का आकार भी लेते हैं। लोकनृत्य के साथ होली त्योहार का उत्सव महाराष्ट्र में पूरा होता है। सोंगी मुखौटा नृत्य के इस अद्भुत दृश्य को आज राष्ट्रीय आदिवासी लोक नृत्य महोत्सव के माध्यम से दर्शकों ने देखा और इसका पूरा आनंद लिया।

भारत की समृद्ध लोक नृत्य-संगीत की परम्परा का नायाब उदाहरण महाराष्ट्र का सोंगी मुखौटे नृत्य

महाराष्ट्र का सोंगी मुखौटे नृत्य भारत की समृद्ध लोक नृत्य-संगीत की परम्परा का नायाब उदाहरण है। यह मुखौटा नृत्य चौत्र मास की पूर्णिमा पर देवी की पूजा के साथ महाराष्ट्र में किया जाता है। असत्य पर सत्य की विजय के इस नृत्य में दो कलाकार नरसिंह रूप धारण कर नृत्य करते हैं। महाराष्ट्र में होली के बाद यह उत्सव मनाया जाता है।

इस उत्सव में पारम्परिक व्रत एवं पूजा के बाद बलि देने का रिवाज भी शामिल है। सोंगी मुखौटा नृत्य हाथ में छोटी डंडियाँ लेकर किया जाता है। नर्तक काल भैरव और बेताल के भी मुखौटे पहन कर नृत्य करते हैं। यह नृत्य असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। ढोल, पावरी तथा संबल वाद्य इस नृत्य में प्रमुख रूप में उपयोग किए जाते हैं। पावरी वादक हरे रंग का चोंगा पहनते हैं तथा सिर पर मोर के पंख बांधते हैं।

बिना वाद्य यंत्र का लोक नृत्य माकू हिमीशी, रोमन विजेताओं की तरह टोप पहने नागा लोक कलाकारों ने दी शानदार प्रस्तुति

बिना वाद्य यंत्रों के भी नागालैंड के लोक कलाकारों ने युद्ध के पश्चात विजय से लौट रही सेनाओं के अपूर्व उत्साह का प्रदर्शन करती सेना की अभिव्यक्ति अपने सुंदर नृत्य के माध्यम से दी। माकू हिमीशी का प्रदर्शन नागा पुरुषों द्वारा शिकार में सफलता मिलने के बाद अथवा लड़ाई में विजय के पश्चात किया जाता है। जैसे छत्तीसगढ़ में गौर नृत्य होता है उसी प्रकार नागालैंड में शिकार अथवा लड़ाई में सफलता मिलने पर जश्न खास लोकनृत्य के माध्यम से मनाया जाता है। इसमें अपने पारंपरिक अस्त्र शस्त्र से सजे पुरुष जीत की अभिव्यक्ति लोक नृत्य के माध्यम से करती हैं। उनके परिवार की महिलाएं उनका उत्साह बढ़ाने स्वागत में नृत्य करती हैं और चारों तरफ उत्साह का वातावरण बन जाता है। उल्लेखनीय है कि विजय से उपजा उत्साह इतने अतिरेक में होता है कि लोकधुन के लिए गुंजाइश ही नहीं होती और यह उत्साह पूरे माहौल में खुशियां बिखेर जाता है।

इस नृत्य की खासियत है लोककलाकारों की वेशभूषा। पारंपरिक नागा परिधान के साथ इनकी टोपियां इस प्रकार से थीं जैसे रोमन सैनिकों की होती थी। कोई भी यूरोप का दर्शक यदि इस नृत्य को देखे तो महसूस करेगा कि जूलियस सीजर के युद्ध से लौटने का दृश्य है और उसका स्वागत अभूतपूर्व उत्साह और परंपरागत ढंग से हो रहा है। इस नृत्य ने दर्शकों के बीच अपनी खास जगह छोड़ी।

मध्यप्रदेश में भी होता है गेड़ी नृत्य, इसमें हमारे पंथी की तरह ही बनाते हैं पिरामिड

छत्तीसगढ़ की स्थापना के बाद आई पीढ़ी ने अब तक केवल यहां का ही गेड़ी नृत्य देखा होगा लेकिन राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के मौके पर इस पीढ़ी को मध्यप्रदेश के लोकनर्तकों द्वारा किया गया गेड़ी नृत्य भी देखने का सुअवसर मिला। गेड़ी नृत्य भी इस मामले में खास कि इसमें हमारे पंथी नृत्य की तरह ही पिरामिड बनाते हैं। लोक नर्तकों द्वारा पारंपरिक वाद्ययंत्रों से जब शैला गेड़ी नृत्य का आगाज किया गया तो पूरी सभा में समां बंध गया। जब लोक कलाकार पिरामिड के रूप में उठे तो जनसमूह झूम उठा। इसमें महिला नर्तकों के सिर में एक के बाद एक घड़े थे और उनके ऊपर दीपक। इस नृत्य के लिए जो संतुलन चाहिए था वो अद्भुत संतुलन इन लोककलाकारों में नजर आ रहा था। बड़ी सहजता से एक के बाद एक लोककलाकार पिरामिड बनाते गये और देखने वाले झूम गये। साथ ही इनकी पोशाक भी खास चटखीले रंगों वाली रही जो पूरे नृत्य का आकर्षण। इसके साथ ही इन लोककलाकारों ने धुरवा नृत्य भी किया। लोक संगीत और नृत्य स्थानीय वाद्ययंत्रों के साथ जब प्रदर्शित किये गये तो अद्भुत दृश्य उपस्थित हुआ और लोगों ने इसे काफी सराहा।

मिस्र का नर्तक दल छत्तीसगढ़ की यादें लेकर वतन रवाना

एक नवंबर से शुरू तीन दिवसीय राष्ट्रीय आदिवासी महोत्सव में शामिल होने देश और विदेश के कई आदिवासी नर्तक दलों का आगमन रायपुर में हुआ। इसी कड़ी में मिस्र का नर्तक दल आयोजन में शामिल होने 31 अक्टूबर की शाम को रायपुर पहुंचे थे। उन्होंने अपनी शानदार प्रस्तुति देने के पश्चात आज यहां माना विमानतल से अपने वतन रवाना हुए।

माना विमानतल मे प्रस्थान के समय विभागीय अधिकारी-कर्मचारी उपस्थित थे। विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों ने भावभीनी विदाई दी। दल के सदस्यों ने कहा उन्हें छत्तीसगढ़ रायपुर आने का मौका मिला यह उनके लिए सौभाग्य की बात है। यहां राजधानी रायपुर पहुंचकर विभिन्न देशों और भारत के भिन्न राज्यों के आदिवासियों के संस्कृति की जानकारी हुई तथा उन्हें भी अपने देश की संस्कृति के बारे में अन्य राज्य के लोगों को बताने का शुभ अवसर मिला। उन्होंने कहा की छत्तीसगढ़ रायपुर की यादों को वह हमेशा अपने दिलों में संजोकर रखेंगे।

दल के सारे सदस्यों ने छत्तीसगढिया सबले बढ़िया के नारे का उदघोष कर माना विमानतल से रवाना हुए। दल के सदस्यों ने राज्य सरकार को राष्ट्रीय आदिवासी महोत्सव जैसा मंच प्रदान करने के लिए धन्यवाद किया और कहा कि हमे अपनी संस्कृति को साझा करने का सुअवसर मिला। मिस्र के दल में 9 महिलाएं और 14 पुरुष सहित कुल 23 सदस्य थे।

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव एवं राज्योत्सव 3 नवंबर तक मनाया जाएगा। जिसमें भारत के विभिन्न राज्यों के नर्तक दलों के साथ 10 विदेशी टीम भी शामिल है।

India Edge News Desk

Follow the latest breaking news and developments from Chhattisgarh , Madhya Pradesh , India and around the world with India Edge News newsdesk. From politics and policies to the economy and the environment, from local issues to national events and global affairs, we've got you covered.
Back to top button