केवल देखने और सुनने की अभ्यस्त हो रही है स्मार्ट फोन की अभ्यस्त नई पीढ़ी
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डा. विनोद बब्बर
संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, ‘सूचना- प्रौद्योगिकी के नये आविष्कारों के कारण निकट भविष्य में दुनिया को एक बड़े संकट का सामना करना पड़ेगा क्योंकि स्मार्ट फोन की अभ्यस्त बन नई पीढ़ी पढऩा लिखना छोड़ केवल देखने और सुनने की अभ्यस्त हो रही है। प्रत्यक्ष आडियो- विडियो चैट, ईमेल, व्हाट्सअप आदि के कारण पत्र लेखन तो लगभग इतिहास हो चुका है। इधर सामान्य संदेश भी लिखित की बजाय वायस मेल के रूप में भेजे जाने लगे हैं। जब ‘कलम’ पर ‘की-पैड’ पूरी तरह हावी हो चुका होगा तब अगली पीढ़ी की अंगुलियों को लिखने का अभ्यास कैसे और कितना रहेगा, कहना मुश्किल है।
केवल लिखना ही नहीं, पढऩे की आदत भी लगातार रसातल में जा रही है। आधुनिक जीवन शैली सभी को आसान विकल्प की ओर ले जा रही है। युवा और छात्र ही नहीं, लगभग सभी हर छोटी-बड़ी बात के लिए इंटरनेट पर निर्भर हो रहे हैं। यह प्रवृत्ति खतरनाक है क्योंकि इंटरनेट पर जरूरी नहीं कि सभी तथ्य और जानकारी सत्य और प्रमाणिक ही हों। कोरोना काल में मजबूरी के आविष्कार ‘आनलाइन’ कक्षाओं ने पुस्तकों और शिक्षकों की बजाय मशीनों से ऐसा जोड़ा कि आज शिक्षाशास्त्री और अभिभावक छात्रों की पाठ्यक्र म की पुस्तकें पढऩे से बचने की प्रवृत्ति से चिंतित हैं। ऐसे में उन्हें साहित्य भी पढऩे के लिए कहना रेत से तेल निकालने जैसा है।
पढऩा एक ऐसा व्यायाम है जो मन-मस्तिष्तक को सक्रि य और स्वस्थ रखता है। न केवल ज्ञान के लिए बल्कि व्यक्तिगत विकास और विकास के लिए पढऩे की आदत विकसित करना महत्वपूर्ण है। यह सकारात्मक सोच विकसित करता है और जीवन को एक बेहतर दृष्टिकोण देता है। यह सभी मानते हैं कि पुस्तकें ज्ञान का भंडार हैं लेकिन सार्वजनिक पुस्तकालयों में भी अब पहले जैसी उपस्थिति नहीं रहती। शिक्षण संस्थानों के पुस्तकालय भी वीरान दिखते हैं क्योंकि मोबाइल की हमारे जीवन में जबरदस्त घुसपैठ के कारण वहां भी गंभीर पाठकों का अभाव है।
रेलवे स्टेशन के बुकस्टाल से पुस्तकें खरीद यात्र में पढऩे के प्रचलन को मोबाइल ने निगल लिया है। लगभग हर स्थान पर मोबाइल में नजरें गढ़ाये छात्र ही नहीं, पुरानी पीढ़ी को छोड़ सभी वर्ग पत्रिकाओं से दूर हो चुके हैं। इसी का प्रभाव है कि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाएं बंद हो चुकी है। कुछ संस्थाएं किसी तरह पत्रिका प्रकाशित कर तो रही हैं लेकिन उनकी पठनीयता पर भी संकट है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, सामान्य सत्य है कि राजनैतिक-सामाजिक दबाव के चलते वार्षिक, आजीवन सदस्यता शुल्क देने वाले घरों में पत्रिकाएं बिना खुले ‘रद्दी’ के ढेर में पहुंच रही है।
इधर आर्थिक तथा डाक अव्यवस्था जैसे कारणों से पीडीएफ भेजने का प्रचलन है। प्रकाशक, संपादक व्हाट्सअप अथवा ईमेल से पत्रिका का पीडीएफ भेज रहे हैं तो कुछ बंधु सैंकड़ों की सदस्यता वाले विभिन्न ग्रुपों में पीडीएफ ‘चेप; अपनी पत्रिका के प्रसार को हजारों मान लेते हैं। लेकिन छोटे से मोबाइल में पत्रिका पढऩा सहज नहीं है। इसलिए पढऩे के इच्छुक भी ‘पढऩा’ नहीं, ‘देखना’ भर कर पाते हैं। हां, जिसका आलेख, चित्र अथवा समाचार प्रकाशित होता है वे उनका स्क्र ीनशाट सोशल मीडिया पर प्रचारित जरूर करते हैं जिसे उनकी मित्र मंडली भी सरसरी नजर डाल ‘वाह! बधाई’ जैसी टिप्पणी कर आगे बढ़ जाती है।
हमारे एक संपादक मित्र ने अपनी पत्रिका को अपनी संस्था के 350 और 452 सदस्यों वाले अपने ग्रुपों में डालने के कुछ दिन बाद सभी माननीय सदस्यों से पत्रिका के ‘गुण-दोष’ से अवगत कराने का आग्रह किया लेकिन दो सप्ताह बाद तक एक भी सदस्य ने पत्रिका की चर्चा तक नहीं की। स्पष्ट है कि पत्रिकाएं पढ़ी नहीं जा रही हैं।
पठनीयता के इस महासंकट को गंभीरता से लेना होगा। बाल साहित्य को सर्वाधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए। बच्चों में पढऩे की आदत डालने के लिए अभिभावकों को भी मोबाइल, टीवी नहीं, पत्रिकाओं और पुस्तकों से नाता जोडऩा होगा। विद्यालयों को भी पढऩे की प्रवृत्ति पुन: जागृत करने में अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी होगी। किशोर अवस्था में ही सभी को यह अहसास करना होगा कि पुस्तकें सबसे अच्छी मित्र हैं। यदि आज हम अपना दायित्व निभाने से आज चूक गये तो कल बहुत देर हो चुकी होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ के सर्वेक्षण में जिस भयावह स्थिति की ओर संकेत किया है, उसके साक्षात उपस्थित होने से पूर्व ही हम सभी को जागना होगा।