क्या है मज़दूर दिवस मनाने की सार्थकता?

अशोक भाटिया
1 मई को दुनिया भर में मजदूर दिवस मनाया गया । इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस और मई दिवस के रूप में भी जाना जाता है। भारत में मजदूर दिवस का पहला उत्सव 1 मई, 1923 को लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान द्वारा मद्रास (अब चेन्नई) में आयोजित किया गया था। मजदूर दिवस 4 मई, 1886 को शिकागो में हेमार्केट अफेयर (हेमार्केट नरसंहार) की घटनाओं को मनाने के लिए मनाया जाता है। यह एक बड़ी घटना थी क्योंकि कर्मचारी अपने आठ घंटे के कार्यदिवस के लिए आम हड़ताल पर थे और पुलिस आम जनता को भीड़ से तितर-बितर करने का अपना काम कर रही थी। अचानक भीड़ पर बम फेंका गया और पुलिस ने कार्यकर्ताओं पर फायरिंग शुरू कर दी और चार प्रदर्शनकारी मारे गए। श्रमिकों के बलिदान के कारण ही 1884 में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर द्वारा शिकागो में राष्ट्रीय सम्मेलन में श्रमिकों के लिए आठ घंटे का कानूनी समय घोषित किया गया था।इस घटना को मनाने के लिए, द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय, समाजवादी और साम्यवादी राजनीतिक दलों के एक अखिल-राष्ट्रीय संगठन ने 1 मई 1891 में मजदूर दिवस के रूप में चिह्नित किया। आज मजदूर दिवस मनाने की सार्थकता तब होगी जब उसके उद्देश्य पर अमल हो ।
भारत में महिला, प्रवासी एवं बाल मजदूरों की समस्याएं बेहद चिंतनीय है। आज भी देश के कोने-कोने में लाखों मजदूर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं।ऑक्सफेम इंडिया की नयी रिपोर्ट में ऐसे ही एक सच महाराष्ट्र के गन्ना उद्योग से सामने आया है। जिसमें करीब 2 लाख बाल मजदूर गन्ना काटने जैसे कार्यों में लगे हुए हैं। उनमें से 1।3 लाख बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। महाराष्ट्र भारत का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य है। जोकि चीनी उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर अनौपचारिक श्रमिकों पर निर्भर करता है। गन्ना काटने के लिए यह मजदूर बड़े पैमाने पर सूखाग्रस्त मराठवाड़ा क्षेत्र से मुकादम के जरिये ट्रकों में भरकर पलायन करते हैं। जोकि बड़ी दयनीय स्थिति में रहते हुए काम करने को मजबूर हैं। जिन्हें गरीबी और उधारी चारों ओर से घेरे रहती है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं और बच्चों को भुगतना पड़ता है।
2018-19 के आंकड़े बताते हैं कि राज्य की 195 चीनी मिलों में से 54 मराठवाड़ा में हैं, जोकि सूखा ग्रस्त क्षेत्र है। 2012-13 में, जब मराठवाड़ा के गांवों में टैंकरों के जरिए पीने के पानी की व्यवस्था की गई थी, तब इस क्षेत्र में 20 नई चीनी मिलों ने काम शुरू किया था। महाराष्ट्र के गन्ना उद्यान में काम करने के लिए हर वर्ष करीब 15 लाख लोग अपने बच्चों के साथ पलायन करते हैं। जिनमें से अकेले बीड जिले से करीब 5 लाख लोग आते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में पलायन के लिए काम धंधों का अभाव, राजनैतिक अस्थिरता, कृषि भूमि का अनुपजाऊ होना, जल और अन्य संसाधनों की कमी जैसे कारक मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
इसके साथ ही जाति प्रथा और लिंग असमानता जैसी सामाजिक कुरीतियां भी लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर कर रही हैं। यह ठेकदार हर परिवार से 15 से 20 फीसदी मजदूरी कमीशन के रूप में लेते हैं। एक तो गरीबी ऊपर से इनका कमीशन, ऐसे में यह मजदूर अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ठेकेदारों (मुकादम) से कर्ज या फिर पेशगी मजदूरी लेते हैं और इसके चलते इन ठेकेदारों के जाल में फंस जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार बीड जिले में 9 लाख श्रमिकों ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में रजिस्टर किया था, जिनमें से केवल 1।35 लाख को रोजगार मिल सका था। 12 से 18 घंटे काम करने के बावजूद इस जिले के 67 फीसदी मजदूर उधारी के बोझ तले दबे हुए हैं।
हर परिवार, जिसे जोड़ी कहते हैं, आमतौर पर हर दिन 2 से 3 टन गन्ना काट पाता है जिसके लिए उसे 200 से 250 रुपये प्रति टन के हिसाब से भुगतान किया जाता है जिसका मतलब कि वो हर रोज 12 से 15 घंटे काम करने के बाद भी करीब 200 से 375 रुपये प्रति व्यक्ति तक ही कमा पाते हैं जबकि सरकार द्वारा 8 घंटे काम करने के लिए 300 रुपये न्यूनतम मजदूरी तय की गयी है। इसके साथ ही उन्हें छुट्टी भी नहीं दी जाती। हर आधे से एक दिन छुट्टी लेने पर उनके पारिश्रमिक से करीब 500 से 1000 रुपये काट लिए जाते हैं।
गन्ना उद्योग में श्रमिकों के रूप में काम कर रही महिलाएं दोहरी मार झेल रही हैं। एक ओर उन्हें अपने परिवार के भरण पोषण के लिए 10 से 12 घंटे खेतों में काम करना पड़ता है। फिर उसके बाद अपने बच्चों ओर परिवार की देखभाल करनी पड़ती है। ऊपर से स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रही हैं। वहीं सामजिक पिछड़ापन उनके जीवन को और दुश्वार कर रहा है।
सुविधाओं के आभाव में यहां खुले में शौच और नहाना आम बात है। सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े विशेषज्ञों के अनुसार बीड जिले के स्वास्थ्य केंद्रों में भर्ती 90 फीसदी गर्भवती महिलाएं खराब आहार के कारण खून की कमी का शिकार हैं।
हर साल करीब 2 लाख बच्चे (14 वर्ष से छोटे) अपने परिवार के साथ पलायन करने को मजबूर हैं। जिनमें से आधों की उम्र 6 से 14 वर्ष के बीच होती है। आंकड़े दिखाते हैं कि इसके चलते इनमे से 1।3 लाख बच्चों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। रिपोर्ट के अनुसार, बच्चे 6 से 7 साल की उम्र में मजदूरी करने लगते हैं और 11 से 12 वर्ष की आयु तक वो पूरी तरह श्रमिक बन जाते हैं।
वहीं, दूसरी ओर घर और कार्यस्थल पर असुरक्षा का भय बच्चियों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहा है। जिसके कारण बाल विवाह जैसी कुरीति बड़ी तेजी से फैल रही है। बाल विवाह से जुड़े 2015-16 के आंकड़ों के अनुसार, देश में महाराष्ट्र उन 12 राज्यों में से एक था, जहां बच्चियों की जल्दी शादी कर दी जाती है। यहां 15 से 19 वर्ष की करीब 12।1 फीसदी बच्चियों की समय से पहले ही शादी कर दी गयी थी। जिनमें से बाल विवाह के 67 फीसदी मामले ग्रामीण महाराष्ट्र में दर्ज किये गए थे। वहीं जिला स्तर पर देखें तो मराठवाड़ा क्षेत्र बाल विवाह के मामलों में सबसे ऊपर वाले 100 जिलों में शामिल है।
शिक्षा के अभाव में यह श्रमिक पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी के भंवर जाल में फंसते जा रहे हैं और अनेकों तरह से इनका शोषण किया जा रहा है। अब शिक्षा ही इनके अंधियारे जीवन में ऊंजाला कर सकती है। सरकार को इस विषय में ठोस कदम उठाने की जरुरत है। साथ ही उनके स्वास्थ्य और सफाई पर भी ध्यान देने की जरुरत है। सूखा यहां की एक आम समस्या है, इसलिए इस क्षेत्र में जल प्रबंधन सम्बन्धी तथ्यों और कृषि पर ध्यान देने की भी जरुरत है। साथ ही महिला श्रमिकों की सुरक्षा और उनके हितों की भी रक्षा की जानी चाहिए। जिससे आने वाले वक्त में इनका नाजायज फायदा न उठाया जा सके। कोई मुकादम उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई न हड़प सके। हर बच्चे को शिक्षा मिल सके और उनका भी विकास हो सके। जिससे वो भी अपना कल बेहतर बना सकें।