भाजपा की बड़ी जीत, कांग्रेस की बड़ी हार
दिवाकर मुक्तिबोध
महाराष्ट्र तथा झारखंड राज्य विधान सभा चुनाव के साथ 14 राज्यों की 48 सीटों के लिए हुए चुनाव के परिणाम एक बार पुन: भाजपा की रणनीतिक कौशल का उदाहरण पेश करते हैं. हालांकि झारखंड में उसकी दाल नहीं गल पाई लेकिन महाराष्ट्र के मामले में उसने जो करिश्मा कर दिखाया, उससे यह कहा जा सकता है कि चुनावी राजनीति में कुछ अप्रत्याशित घड़ना तथा चमत्कृत करना भाजपा को अच्छी तरह आता है. इसका नज़ारा मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ व अभी हाल ही में हुए हरियाणा विधान सभा के चुनाव में पेश हो चुका है. इन राज्यों में कांग्रेस की जीत के दावे किए जा रहे थे. मीडिया के साथ अधिकतर एक्जिट पोल भी यही राग अलाप रहे थे पर तमाम संभावनाओं के विपरीत सभी सूबों के चुनाव परिणाम विस्मयकारी रहे. भाजपा ने शानदार जीत दर्ज करके अपनी सरकारें बनाईं. महाराष्ट्र में भी यही हुआ. भाजपा गठबंधन की महायुति ने न केवल राज्य में अपनी सरकार बचाई वरन कांग्रेस, उद्धव शिवसेना तथा शरद पवार की महाराष्ट्र विकास अघाडी की ऐसी गत कर दी जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. चुनाव के दौरान आम चर्चाओं में यह कहा जा रहा था कि महाविकास विकास अघाडी लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को विधान सभा चुनाव में भी दोहराएगी. पर मामला एकदम उलट गया. महायुति को जबरदस्त सफलता मिली. एकल पार्टी के रूप में भाजपा ने महाराष्ट्र में पुन: अपना वर्चस्व साबित करते हुए अपनी सीटों में इजाफ़ा किया. 2019 में उसने 105 सीटें जीती थीं जो अब बढ़कर 132 हो गई है. इस चुनाव में मतदाताओं ने शिवसेना (उद्धव) तथा एनसीपी ( शरद पवार) के विभाजन पर भी एक प्रकार से मोहर लगा दी. दो फाड होने के बाद एकनाथ शिंदे की शिवसेना तथा अजीत पवार के नेतृत्व में गठित एनसीपी पहली बार चुनाव मैदान में उतरी थीं. उन्हें मिली सफलता से स्पष्ट हो गया कि शिंदे शिवसेना तथा अजीत एनसीपी जनता के अधिक करीब है. महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में भाजपा निहित महायुति का शानदार जीत, झारखंड में झामुमो-कांग्रेस गठबंधन की जीत तथा उपचुनावों में भाजपा गठबंधन की आधी से अधिक जीती गई सीटों के आधार पर कहा जा सकता है कि चुनावी हिसाब-किताब लगभग बराबर रहा अलबत्ता महाराष्ट्र में कांग्रेस को जो भारी-भरकम धक्का लगा उससे उबर पाना भविष्य की दृष्टि से उसके लिए काफी मुश्किल होगा,
महाराष्ट्र में महाविकास अघाडी की दुर्गति के क्या कारण रहे? या यों कहें भाजपा के नेतृत्व में महायुति ने शतरंज की ऐसी कौन सी बिसात बिछाई जिससे महा विकास अघाडी पस्त हो गई. यदि इनके कारणों में जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि महायुति ने बहुत सम्हल-सम्हल कर अपनी चालें इस तरह चली कि अघाडी इनकी कोई काट नहीं ढूंढ पाई. सवाव है, कहां गलती हुई कांग्रेस व महाविकास अघाडी की दोनों घटक दलों की ? दरअसल कांग्रेस इस उम्मीद से थी कि लोकसभा चुनाव में जो माहौल बना था वह अंत तक कायम रहेगा हालांकि शरद पवार ने स्पष्ट कहा था कि अघाडी की तीव्रता लोकसभा चुनाव जैसी नहीं थी. यद्यपि प्रत्याशियों के चयन पर अघाडी में अधिक खींचतान नहीं हुई किंतु चुनाव के दौरान कांग्रेस ने संविधान बचाओ के अपने पुराने नैरेटिव को महाराष्ट्र में भी चलाने की कोशिश की लेकिन राज्य के अन्य मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण थे फलत: संविधान का नैरेटिव वांछित तौर पर नहीं चला. अघाडी ने महंगाई , बेरोजगारी, किसानों की दुरावस्था, महिलाओं की असुरक्षा तथा कानून व्यवस्था के सवाल भी जोरशोर से उठाए पर चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस के मुद्दों ने मतदाताओं को प्रभावित नहीं किया. यही स्थिति उद्धव शिवसेना तथा शरद एनसीपी की रही. 288 सीटों की विधान सभा में कांग्रेस अब सिर्फ 16 पर सिमट गई है जबकि पिछले चुनाव में उसकी 44 सीटें थीं. यानी इस चुनाव में वह निम्नतम स्थिति पर है. कांग्रेस ने 104 सीटों पर अपने प्रत्याशियों का खड़ा किया था. और तो और उसके कई दिग्गज भी चुनाव हार गए. हारने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज राज चव्हाण, कांग्रेस विधायक दल के नेता बाला साहेब थोराट तथा गोवा के प्रभारी माणिक राव ठाकरे प्रमुख हैं. प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले साकोली में 208 मतों के मामूली अंतर से बमुश्किल चुनाव जीत पाए. कांग्रेस के लिए संतोष की बात सिर्फ यह कि उसने दोनों लोकसभा उपचुनाव जीत लिए. केरल के वायनाड से प्रियंका गांधी चार लाख से अधिक वोटों से तथा नांदेड से रवींद्र वसंत राव चव्हाण ने 1457 वोटों से जीत दर्ज की.
चुनाव में उम्मीदों से भरपूर महाविकास अघाडी की उद्धव शिवसेना व शरद पवार की स्थिति भी कांग्रेस जैसी ही हुई. अधिक निराशाजनक शरद पवार की एनसीपी की रही.पवार ने 87 सीटों पर चुनाव लड़ा था पर उसके 10 उम्मीदवार ही जीत पाए. 2019 के चुनाव में अविभाजित एनसीपी ने 54 सीटें जीती थीं. चुनाव के दौरान ही शरद पवार ने चुनाव राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी थी. महाराष्ट्र में राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले इस वयोवृद्ध मराठा नेता एवं उनकी पार्टी को जनता ने एक तरह से अगले पांच वर्षों के लिए संन्यास दे दिया है. यद्यपि शरद पवार ने फिलहाल ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वे सक्रिय राजनीति से विदा ले रहे हैं.
उध्दव की शिवसेना ने यदि कोई चमत्कार किया है तो बेटे आदित्य ठाकरे ने किया. उन्होंने केंद्रीय मंत्री व किसी समय कांग्रेस के दिग्गज रहे मिलिंद देवडा को वर्ली निर्वाचन क्षेत्र में परास्त किया. लेकिन इस बड़ी जीत के अलवा पार्टी की पराजय शोचनीय रही. उसने 92 सीटों पर चुनाव लड़ा पर 20 में ही जीत पाए. दरअसल 2019 के चुनाव के बाद उद्धव के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में महाविकास अघाडी की सरकार बनी थी जो जून 2022 तक कायम रही. इस दौरान उद्धव ठाकरे का शासन ढीला-ढाला रहा तथा सरकार ने कोई ऐसे काम नही किया जिसे जनता याद रख सके. दूसरी ओर विभाजन से बनी शिंदे शिवसेना तथा एनसीपी से बगावत कर अलग हुई अजीत पवार की एनसीपी ध भाजपा की गठबंधन सरकार ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में ढाई साल से भी कम समय में फटाफट अनेक जनकल्याणकारी योजनाएं बनाई तथा उनका क्रियान्वयन भी शुरू कर दिया जिससे लोगों के बीच यह मैसेज गया कि यह काम करने वाली सरकार है. इससे एकनाथ शिंदे की पार्टी को चुनाव में स्वीकार्यता मिली जबकि उद्धव ठाकरे की सेना इन्हीं वजहों से जनता से दूर हो गई जिसका नतीजा उसे भुगतान पड़ा.
भाजपा की सुनियोजित रणनीति
मई 2023 में कर्नाटक विधान सभा के चुनाव को भाजपा ने एक सबक के तौर पर लिया था. इस चुनाव में कांग्रेस को भारी विजय मिली थी तथा भाजपा व जनता दल सेक्युलर का गठबंधन बुरी तरह पराजित हो गया था. इस हार के बाद भाजपा ने काफी रणनीतिक बदलाव किए. छह माह बाद नवंबर-दिसम्बर में तीन राज्यों, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश व राजस्थान के चुनाव में भाजपा ने अपना ध्यान महिलाओं पर केन्द्रित किया. मध्यप्रदेश में उसकी सरकार थी और छत्तीसगढ व राजस्थान में कांग्रेस की. मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विभिन्न योजनाओं के अलावा चुनाव के चंद माह पूर्व लाडली बहन योजना लागू की जिसके अंतर्गत महिलाओं के बैंक
खाते में प्रति माह एक हजार रुपए डाले गए. छत्तीसगढ में भी चुनावी वायदा किया गया. महतारी वंदन योजना के तहत गांव-गांव में महिलाओं से फार्म भरवाए गये. राजस्थान में भी ऐसा ही किया गया. इसमे दो राय नहीं कि भाजपा की इस योजना के कारण सत्ता तक पहुंचने की उसकी राह आसान हुई. इसके अलावा आरएसएस ने जमीन तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई. भाजपा ने अपने घोषणापत्र में प्रलोभित करने वाले वायदों का समावेश किया था. उसे छत्तीसगढ व राजस्थान में कांग्रेस सरकार के गफलत में रहने का भी फायदा मिला जो यह मानकर चल रहे थे वे दुबारा सत्ता में लौट रहे हैं. लेकिन नतीजे भाजपा की उम्मीद के अनुसार आये तथा पार्टी ने प्रचंड बहुमत के साथ इन राज्यों में अपनी सरकार बनाई. इस वर्ष हरियाणा में भी कुछ बदलाव के साथ भाजपा ने जातीयता का कार्ड खेला. उसने दलितों व पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की कोशिश की. लोकसभा चुनाव के परिणामों से उत्साहित यहां भी कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि वह बीजेपी की सरकार को बेदखल कर देगी. किंतु अप्रत्याशित व चकित करने में माहिर भाजपा ने इस राज्य में भी अपना झंडा बुलंद रखा.
चुनाव की दृष्टि से महाराष्ट्र में स्थिति भिन्न थी. यहां 6 प्रमुख पार्टियां चुनाव लड़ रही थी. लेकिन भाजपा की तैयारियां योजनानुसार पहले से ही शुरू हो चुकी थी. उसने सबसे पहले महाविकास अघाडी के घटक दल शिवसेना व एनसीपी का विभाजन सुनिश्चित किया. जून 2022. में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की शिवसेना टूट गई. पीछे-पीछे शरद पवार से बगावत करके अजीत पवार ने अपनी एनसीपी बना ली. नतीजतन विधान सभा में सरकार अल्पमत में आ गई लिहाज़ा उसे इस्तीफा देना पड़ा. दरअसल भाजपा का लक्ष्य हर सूरत में 2024 के विधान सभा चुनाव को जीतने का था. उसने मोहरे इसी हिसाब से चलाए. पार्टी ने एकनाथ शिंदे व उसकी शिवसेना को आगे किया. अजीत पवार को डिप्टी सीएम बनाकर महायुति की सरकार गठित की तथा दो दफे सीएम रह चुके अपने दिग्गज मराठा नेता देवेन्द्र फडणवीस को डिप्टी का पद स्वीकार करने राजी कर लिया. भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व की दूरदृष्टि का नतीजा अब सामने है. जाहिर है उसकी जीत की इबारत जून 2022 में ही लिख दी गई थी.
फिर भी महाराष्ट्र में राह हरियाणा की तरह आसान नहीं थी. सबसे बड़ी दिक्कत थी करीब डेढ वर्ष तक चला मराठा आरक्षण आंदोलन. मनोज जारंगे पाटिल इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की आबादी लगभग 30 प्रतिशत है. सरकार के मुख्यमंत्री व उनके दोनों डिप्टी भी मराठे है. आरक्षण का मुद्दा सरकार के गले की फांस बन गया था. परेशानी इसलिए भी बढ़ गई थी क्योंकि ओबीसी के बिदकने का ख़तरा था जिसे आशंका थी कि आरक्षण के उनके हिस्से को काटकर मराठों को न दे दिया जाए. इस वजह से दोनों समुदाय आमने-सामने थे. स्थितियों को भांपते हुए भाजपा ने ओबीसी वर्ग को साधने की कवायद शुरू की. महाराष्ट्र में ओबीसी वोटर भी चुनाव में निर्णायक भूमिका में रहते हैं. लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षाकृत कम सीटें मिलने का एक बड़ा कारण ओबीसी की नाराजगी मानी गई. भाजपा ने पिछड़ी जातियों को साधने के लिए माधव फार्मूले पर काम किया जिसके अंतर्गत माली, धनगर व बंजारा समुदाय आते हैं. हालांकि इस बीच एकाएक मनोज जारंगे पाटिल की चुनाव मैदान में संगठन को न उतारने की घोषणा से भाजपा को बड़ी राहत मिली. इससे मराठा वोटों के विभाजन का खतरा कम हो गया. चुनाव के नतीजे के आधार पर इसे इस तरह समझा जा सकता है कि मराठवाडा के 8 जिलों की 46 सीटों में भाजपा ने सबसे अधिक 19 व महायुति को कुल 40 सीटों पर जीत मिली. अर्थात पिछड़ी जातियों के साथ ही मराठों ने भी भाजपा को समर्थन दिया.
हकीकतन भाजपा ने चारों ओर से विरोधियों की घेरेबंदी की. उन्हें को उभरने नहीं दिया. हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में एक जुट करने ‘ बंटेंगे तो कटेंगे ‘ नारे को खूब हवा दी गई. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी इसे अधिक सौम्य करते हुए ‘ एक है तो सेफ हैं ‘ का नारा दिया. इससे भी खासा माहौल बना. किंतु पांसा पलटा महिला वोटरों की वजह से. सरकार ने जून 2024 में लाडली बहन योजना शुरू की और करीब 2 लाख 35 हजार गरीब महिलाओं के बैंक खाते में 1500 रूपए मासिक के हिसाब से पैसे डालने शुरू किए. यही नहीं एकनाथ सरकार ने वायदा किया कि यदि महयुति चुनाव जीत गई तो सम्मान राशि बढाकर 2100 रूपए कर दी जाएगी. जाहिर है सरकार से लाभान्वित महिला मतदाओं ने महायुति के पक्ष में थोक में वोट डाले.
इसके अतिरिक्त भाजपा की रणनीति का एक महत्वपूर्ण पडाव था आरएएस का मैदान में उतरना. यह कहा जा रहा था भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व तथा संघ के बीच दुराव आ गया है. लेकिन हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में संघ ने माहौल बनाने में जो मेहनत की उससे स्पष्ट हो गया कि दुराव की चर्चाएं बेबुनियाद थीं. संघ के करीब 60 हजार कार्यकर्ताओं ने मोर्चा संभाला और छोटी-बड़ी 12 हजार से अधिक सभाएं कीं. मतदान का प्रतिशत बढ़ना भी भाजपा व महायुति के लिए फायदेमंद रहा.
महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव में महायुति के घटक दल भी अग्नि परीक्षा में पास हो गए. शिंदे शिवसेना को 57 तथा अजीत पवार की एनसीपी ने 41 सीटों पर जीत दर्ज की. भाजपा की 132 सीटों को मिलाकर महायुति की सीटों की संख्या 230 है जबकि सरकार के गठन के लिए 145 सीटें काफी थी. जाहिर इस गठबंधन ने 288 की विधान सभा में प्रचंड बहुमत हासिल कर लिया जो एक नया रिकॉर्ड है.
झारखंड में झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने भी कमाल किया
महाराष्ट्र में भाजपा को भले ही सफलता मिली हो पर झारखंड ने उसे सिरे से नकार दिया. राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा व कांग्रेस की गठबंधन सरकार अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रही. 81 सदस्यीय विधान सभा में गठबंधन को 56 सीटें हासिल हुई जिसमे झामुमो के 34 , कांग्रेस के 16 व अन्य सहयोगी दल राजद चार तथा भाकपा माले के दो विधायक शामिल हैं. एनडीए 24 पर सिमट गई . भाजपा का शेयर 21 सीटों का रहा. झारखंड में भाजपा की पराजय के अनेक कारण हैं. एक तो राज्य में चुनाव अभियान की कमान केन्द्रीय नेतृत्व ने अपने हाथ में रखी फलत: प्रदेश कमेटी केवल औपचारिकता पूरी करती रही. 20 सितंबर को अमित शाह के भाषण ने भी नकारात्मकता को हवा दी. उन्होंने कहा था कि भाजपा के सत्तारूढ होने पर रोहिंज्ञा व बांग्लादेशी घुसपैठियों को राज्य से बाहर खदेड दिया जाएगा. इस नैरेटिव के साथ ही भाजपा का परिवारवाद व भ्रष्टाचार का मुद्दा भी नहीं चला. और दूसरी बड़ी बात, आदिवासियों तथा मुस्लिम मतदाताओं ने आदिवासी मुख्यमंत्री तथा झामुमो-कांग्रेस कांग्रेस पर अधिक भरोसा जताया.
14 राज्य 48 उपचुनाव
महाराष्ट्र व झारखंड के साथ ही 14 राज्यों की 48 विधान सभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे मिले-जुले रहे हालांकि एकल पार्टी के रूप में भाजपा गठबंधन ने सर्वाधिक 25 सीटें जीतीं जिसमें भाजपा के 16 सीटें शामिल हैं.
भाजपा शासित राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा. उसने यूपी में 9 में से 6, राजस्थान में 7 में से 5 व बिहार में से 2 सीटें जीतीं. छत्तीसगढ व उत्तराखंड में रिक्त एक सीट पर चुनाव हुआ तथा दोनों भाजपा ने जीतीं. पश्चिम बंगाल में वह सभी 6 सीटें हार गई. यहां टीएमसी का दबदबा कायम रहा. भाजपि को बड़ा झटका मध्यप्रदेश के विधान सभा क्षेत्र विजयपुर में मिला जहां पार्टी के प्रत्याशी व मोहन यादव सरकार में मंत्री रामनिवास रावत चुनाव हार गए. उन्हें कांग्रेस के मुकेश मल्होत्रा ने 7 हजार से अधिक वोटों से हराया. उनकी हार में आदिवासी वोटरों की बड़ी भूमिका थी. आदिवासी बहुल गांवों में घटित हिंसा, मारपीट व अत्याचार की घटनाओं का परिणाम वोटरों की नाराजगी के रूप में सामने आया. 6 बार कांग्रेस के विधायक रहे रामनिवास भाजपा में आने के बाद मंत्री बना दिए गए. थे. इससे पार्टी के एक खेमे में असंतोष तो फैला ही वोटरों ने भी दलबदलू को पसंद नहीं किया.
मध्यप्रदेश की दूसरी सीट बुधनी केन्द्रीय मंत्री व मध्यप्रदेश के चार बार के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान की सीट रही है. बुधनी में वे वैसे ही लोकप्रिय है जैसे छत्तीसगढ में बृजमोहन अग्रवाल. 6 बार के विधायक और अब सांसद चौहान भारी मतों से चुनाव जीतते रहे हैं. पिछला विधान सभा चुनाव उन्होंने एक लाख से अधिक वोटों से जीता था पर उपचुनाव में उनके खास रमाकांत भार्गव महज 13 हजार 109 वोटों से जीत पाए. शिवराज के क्षेत्र में भाजपा की इतने कम वोटों से जीत मोहन यादव सरकार के प्रति किसानों की नाराजगी का संकेत है. प्रदेश भाजपा और विशेषकर शिवराज सिंह चौहान के लिए भी यह बड़ा धक्का है. शिवराज सिंह झारखंड के चुनाव प्रभारी थे. वहां भाजपा की हार वस्तुत: उनकी क्षमता पर भी सवाल खड़े करती है.
बहरहाल दोनों राज्यों के विधान सभा चुनाव तथा तीन दर्जन से अधिक सीटों के उपचुनाव ने कांग्रेस व भाजपा को स्वआकलन का अवसर दिया है. आम आदमी पार्टी के साथ दोनों की पुनर्परीक्षा फरवरी 2025 में होगी जब दिल्ली विधान सभा के चुनाव होंगे. फिलहाल यही कहा जा सकता है कि झारखंड में पराजय के बावजूद भाजपा महाराष्ट्र जीतकर गदगद है और कांग्रेस अब तक की सबसे बड़ी पराजय से चिंतित व दुखी है.
भाजपा-कांग्रेस के चुनावी युद्ध में वायनाड की घटना लगभग अनदेखी रह गई. इस लोकसभा उपचुनाव में प्रियंका गांधी ने अपने पहले ही संसदीय चुनाव में जीत का कीर्तिमान स्थापित किया जिसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई. कांग्रेस ने नांदेड का भी उपचुनाव जीता. पर उनकी जीत महाराष्ट्र में हार से फीकी पड़ गई.