‘सिंगल चाइल्ड’ के मार्ग पर चल निकला अधिकतर समाज

डा. विनोद बब्बर
जनसंख्या वृद्धि अनेक समस्याओं की जननी है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने की मांग उठ रही है जिसका एक समुदाय विरोध कर रहा है। दूसरी ओर बहुसंख्यक लोग कानून के बिना भी परिवार का आकार छोटा रख रहे हैं। एक वर्ग तो ‘सिंगल चाइल्ड’ के मार्ग पर चल निकला है। उच्च शिक्षित वर्ग जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, साधन संपन्न होते हुए भी वे बच्चा पालने को समस्या मानते हैं।
हमारे एक मित्र पांच वर्ष के अपने इकलौते पोते के चिड़चिड़ा होने से परेशान मनोचिकित्सक से मिले तो उसने उसे बच्चों के साथ रखने का सुझाव दिया। जहां वह बाल सुलभ वातावरण में स्वयं को बेहतर महसूस करेगा। इसी प्रकार उच्च अधिकारी जाने-माने स्कूल में आठवीं कक्षा के छात्र अपने बेटे की अजीब हरकतों से परेशान नजर आये। वह विशेषज्ञों की शरण में गए जहां ‘बच्चों के साथ’ रखने की सलाह दी गई। लेकिन उनकी समस्या है कि ‘किन बच्चों’ के साथ रखें। घर में दूसरा बच्चा नहीं। फ्लैट संस्कृति में जहां सब अपने तक सीमित रहते हों, अड़ोस-पड़ोस जैसा कुछ नहीं। पार्क हैं पर अकेले कैसे जाये। पिता अपनी साप्ताहिक छुट्टी के दिन उसे स्विमिंग सिखाने ले जाने लगा। उससे थोड़ा बदलाव जरूर हुआ पर व्यस्त पिता आखिर कितना समय दे सकता था। अकेले बच्चे को स्विमिंग के वीडियो देखने का सुझाव मिला जो बाद में व्यसन बन गया।
यह सब स्विमिंग तक सीमित रहता तो भी ठीक था। इंटरनेट ने उसे वह भी सहज उपलब्ध करा दिया जो उस आयु में नहीं मिलना चाहिए था। बच्चा पढ़ाई में पिछडऩे लगा तो ‘अच्छी शिक्षा’ दिलाकर ‘कैरियर बनाने’ का ख्वाब चकनाचूर होने लगा। तब उन्हें अहसास हुआ कि ‘बच्चे अधिक नहीं होने चाहिए पर एक भी ठीक नहीं’।
एक मनोचिकित्सक के अनुसार ‘आज के बच्चों में बहुत अधिक ऊर्जा है। केवल आधुनिक साधन उसे संतुष्ट नहीं कर सकते क्योंकि टीवी, मोबाइल, गेम्स आदि की एक सीमा है। अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, आधुनिक साधन का महत्व है लेकिन अपनी वय के बच्चों और प्रकृति के सान्निध्य में ही उनके स्वाभाविक शारीरिक – मानसिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।’
शिक्षा महंगी होने के कारण भी कुछ लोग ‘एक बच्चे’ के पक्षधर हैं। संयुक्त परिवार रहे नहीं। पहले की तुलना में उनसे अधिक अनुशासन की आपेक्षा की जाने लगी है। हर गलती पर टोकना, डांटना, समझाना उनके आत्मविश्वास को कम करता है। यदि स्कूल जाता है तो वहां से लौट कर नौकर के साथ होते हुए भी अकेलापन ही होता है। आजकल तो घर में दादा-दादी भी नहीं होते, तब उसकी सुनने वाला कौन? बच्चे को अपने मन की बात कहने का अवसर नहीं मिलेगा तो डिप्रेशन का शिकार हों, वह जिद्दी हो जाये तो किम आश्चर्य?
हमें यह समझना चाहिए कि बच्चे की मासूमियत और बचपन को बचाना बहुत जरूरी है। उसे भौतिक वस्तुओं से अधिक आवश्यकता कम से कम एक भाई-बहन की है जिसके साथ वह झगड़ भी सके। प्रतियोगिता कर सके। बाल सुलभ व्यवहार में रूठना, कही-सुनी और थोड़ी देर बाद सब भूल कर मिलकर खेलना सामान्य है। यह सब उसे नहीं मिलेगा तो वह किससे झगड़ेगा? किससे प्रतियोगिता- होड़ करेगा? ऐसे में यदि वह तोड़-फोड़ करेे, बात-बात पर चिल्लाये तो इसे असामान्य नहीं कहा जा सकता।
जिन्हें भाई -बहनों के साथ लडऩे-झगडऩे का अवसर नहीं मिलता, उन्हें सिबलिंग राइवलरी जैसे अनूठे अनुभवों से वंचित रहना पड़ता है। वे नहीं जानते कि झगड़े के बाद भी प्यार बना रह सकता है। यह भावनात्मक अनुभव बच्चे को आत्मविश्वास प्रदान करता है। यहां यह समझना आवश्यक है कि लाख बुरा कहो पर बचपन के झगड़े बहुत कुछ सिखाते भी हैं। बच्चे सीखते हैं कि ‘अपने अधिकार के लिए झगडऩा भी पड़ सकता है पर झगड़े को सुलझाना भी है। समझौता करना पड़ेगा। झगड़े में हमेशा जीत नहीं होती। इसलिए झुकना भी पड़ेगा।’ आयु के साथ बच्चा अपने भरे-पूरे परिवार से यह सब सीखता है पर अकेला किससे सीखे? कैसे सीखे? कब सीखे? यह विचारणीय है। विशेष यह कि बड़े भाई बहन की उपस्थिति छोटे को सुरक्षा की भावना प्रदान करती है जबकि अकेली संतान माता-पिता पर ही निर्भर रहती हैं। ईश्वर न करें, परिवार में कोई अनहोनी हो अथवा माता पिता बीमार या बूढ़े हों तो सगे भाई बहन ही सबसे अधिक विश्वसनीय होते हैं।
अधिक बच्चों की उपयुक्त परवरिश कर पाना महंगाई तथा समय की कमी के कारण बहुत मुश्किल हो गया है। पहले अधिक भाई बहनों का परिवार हुआ करता था। माता पिता बहुत से बच्चों में बंटे होते थे। भाई बहन खुद ही आपस में मिलकर एक दूसरे की जरुरत और समस्या का समाधान कर लेते थे। कम से कम दो भाई- बहन होने पर बड़े बच्चे में स्वत: जिम्मेदारी की भावना विकसित हो जाती है जो अकेले बच्चे में संभव नहीं। दो होंगे तो लेन देन सीखेंगे, क्षमा करना सीखेंगे।
हम अपने समय को याद करें तो बड़े भाई बहन का सामान एक के बाद एक उपयोग में लाते थे क्योंकि एक से अधिक भाई बहन होने पर घर की किसी भी चीज पर किसी एक का एकाधिकार नहीं होता। थोड़े बहुत मनोविनोद के बाद आपस में मिल बांट कर हर चीज का सदुपयोग करते थे। अत: बच्चे सहज शेयर करना सीख जाते हैं। अकेले बच्चे में यह गुण सहज विकसित नहीं हो पाता। बचपन की इस मानसिकता का प्रभाव पूरे जीवन बना रहा इसीलिए हमें परिवार, कार्यालय, समाज में मिल बांटते हुए सकून मिलता है।
यह सत्य है कि घर-आफिस के साथ बच्चों की जिम्मेदारी निभाना आसान नहीं होता लेकिन सिंगल चाइल्ड का प्रचलन बढ़ा तो एक दिन रिश्तों के संसार को ही खत्म कर देगा। मौसी, मामा, चाचा, चाची, बुआ जैसे रिश्ते तो शायद खत्म ही हो जाएंगे। कल जब इकलौती बेटी की शादी होगी तो मायके में माता-पिता के अलावा तो कोई है ही नहीं तो उनके बाद जब मायका ही नहीं रहेगा तो बच्चे मामा, मौसी किसे कहेंगे? ननिहाल क्या होता है कैसे जान पाएंगे। बेटे के भाई- बहन नहीं तो बच्चों को चाचा, ताऊ, बुआ का अर्थ कैसे समझें। अकेली संतान होने पर माता पिता की अपेक्षाओं को पूरी करने का दबाव बच्चे पर बढ़ जाता है क्योंकि ऐसे माता- पिता संतान की असफलता को खुद की असफलता मानने लगते हैं।
गलती सुधारी जा सकती है तो बच्चे के हित में जरूर सुधारनी चाहिए। यदि ऐसा संभव नहीं तो ऐसा कुछ जरूर करें कि घर में कोई तो अपना हो जो उन्हें मोरल एजुकेशन दें। मोटिवेट करें तो साथ ही साथ खुद भी समझें कि बच्चे को डांस, म्यूजिक, स्विमिंग, आर्ट से जोडं़े जहां आपके लाड़ले को अपने जैसे बच्चों के साथ रहने का अवसर मिले। एक दूसरे को देखकर सीखना सहज होता है, यह आप जानते ही है।