आबादी नियंत्रण के लिए कुछ तो करना होगा…

अशोक भाटिया

जनसंख्या नियंत्रण पर बहस और इसके लिए कानून बनाने की मांग कोई नई बात नहीं है। न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और आर्थिक नजरिये से भी देश में जनसंख्या विस्फोट को काबू करने की मांग उठती रही है। हाल में असम और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं जिससे यह मुद्दा फिर से गर्मा गया है। एक ओर जहां असम की सरकार ने इस दिशा में सरकारी आदेश जारी किए हैं, वहीं उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इस पर विधेयक लाने की तैयारी में है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के मुताबिक राज्य में धीरे-धीरे ‘टू-चाइल्ड पॉलिसी’ लागू की जाएगी।माना जा रहा है कि इस तरह सरकारें दो से ज्यादा बच्चों के माता-पिता को कुछ सरकारी सुविधाओं और सब्सिडी से वंचित कर सकती हैं। इन दोनों ही राज्य सरकारों का रुख हैरान करने वाला नहीं है। इसकी वजह है कि ‘टू-चाइल्ड पॉलिसी’ भारत के करीब 11 राज्यों में पहले से ही लागू है। इन राज्यों में दो से ज्यादा बच्चों के माता-पिता को कुछ सरकारी सुविधाओं और पंचायत से लेकर नगर पालिका के चुनाव लड़ने तक की इजाजत नहीं दी जाती है लेकिन यहां पर सवाल है कि क्या भारत को अभी ऐसे किसी कानून की जरूरत है? यदि नहीं तो फिर इसे अपनी आबादी को नियंत्रित करने के लिए क्या करना चाहिए?

आंकड़ों से पता चलता है कि जनसंख्या और शिक्षा का बड़ा गहरा नाता है। ऐसे राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर में कमी आई है, जिनकी साक्षरता दर ज्यादा है। सबसे ज्यादा साक्षरता दर वाले राज्य केरल की दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर महज 4.9 फीसद है, जबकि सबसे कम साक्षरता दर वाले राज्य बिहार की वृद्धि दर 25.1 फीसद है। इसी तरह स्कूली शिक्षा के आधार पर भी प्रति महिला बच्चों की संख्या में अंतर पाया जाता है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के मुताबिक बिना स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं के औसतन 3.1 बच्चे होते हैं, जबकि 12वीं या ज्यादा शिक्षा वाली महिलाओं के 1.7 बच्चे होते हैं। गरीबी भी बढ़ती जनसंख्या के लिए जिम्मेदार है। गरीब परिवारों में बच्चों की अधिकता देखी जाती है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के मुताबिक गरीब महिलाओं के अमीर महिलाओं की तुलना में औसतन 1.7 अधिक बच्चे होते हैं। निर्धन महिलाओं की प्रजनन दर जहां 3.2 है, वहीं धनी महिलाओं में प्रजनन दर 1.5 पाई गई है। इसके अलावा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, बाल विवाह, महिलाओं की कमजोर सामाजिक स्थिति आदि भी कुछ ऐसे कारण हैं, जो देश की आबादी में बेतहाशा वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं।

आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी की अपनी समस्याएं हैं। इनको नजरअंदाज एक देश ज्यादा दिनों तक खड़ा नहीं रह सकता। बढ़ती आबादी का ही नतीजा है कि आज हम प्रति व्यक्ति आय के मामले में कई देशों से काफी पिछड़े हैं। हाल में पता चला कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में बांग्लादेश ने भारत को पछाड़ दिया है। वित्त वर्ष 2020-21 में बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 1.62 लाख रुपये रही जबकि भारत की प्रति व्यक्ति आय 1.41 लाख रुपये से थोड़ी ज्यादा रही। इसके अलावा आबादी में इजाफे का दबाव दूसरे संसाधनों और अवसरों की उपलब्धता पर भी पड़ता है। किसी भी देश के विकास में संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता बहुत मायने रखती है। भारत में संसाधनों के विकास की गति की अपेक्षा जनसंख्या वृद्धि दर कहीं अधिक है।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री रॉबर्ट माल्थस ने ‘जनसंख्या सिद्धांत’ में जनसंख्या वृद्धि और इससे पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बताया है। उनके मुताबिक जनसंख्या दोगुनी रफ्तार जैसे-दो, चार, आठ और 16 आदि के अनुपात में बढ़ती है जबकि संसाधन में बढ़ोतरी सामान्य रफ्तार जैसे-एक, दो, तीन और चार आदि के अनुपात में ही हो पाती है। इस कारण संसाधनों का आबादी में समान बंटवारा नहीं हो पाता है। अधिकांश लोग इससे वंचित रह जाते हैं। इससे गरीब वर्ग का उत्थान नहीं हो पाता। यह स्थिति समाज में सामाजिक-आर्थिक असमानता पैदा करती है, जो बड़े पैमाने पर असंतोष का कारण बनती है। आज हम देश के संसाधनों पर आबादी के बढ़ते दबाव को महसूस कर सकते हैं। इसके चलते आज भारत की एक बड़ी आबादी निम्न जीवन स्तर जीने को बाध्य है। सब तक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पहुंचाने में हम पिछड़ रहे हैं। एक लोकतांत्रिक देश में ये सुविधाएं समान रूप से सभी नागरिकों तक पहुंचनी चाहिए, लेकिन देश में आबादी और संसाधन के बीच असंतुलन बढ़ने के चलते यह सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है।

हमें जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कदम उठाने से पहले चीन पर एक नजर डाल लेनी चाहिए। 1979 में एक बच्चे और 2016 में दो बच्चे की नीति के बाद अब चीन तीन बच्चे पैदा करने की इजाजत देने जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण के लिए कठोर नियम बनाने के चलते चीन में जनसांख्यिकीय विकार आ गया है। जन्म दर में एकाएक कमी आ जाने के चलते वहां की आबादी तेजी से बूढ़ी हो रही है और कामकाजी लोगों की संख्या भी तेजी से घट रही है। चीन की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए ये स्थितियां चुनौती बन रही हैं। वहीं अमेरिका और जापान में भी कामकाजी लोगों की संख्या घट रही है। वास्तव में किसी भी देश के विकास के लिए कामकाजी लोगों की पर्याप्त संख्या जरूरी है। दरअसल जब कामकाजी लोगों की तादाद बढ़ती है तो देश को मिलने वाले कर में भी वृद्धि होती है। इससे उस देश की तरक्की की राह खुलती है। बूढ़ी आबादी को पेंशन और रिटायरमेंट के लिए धनराशि इसी कर से देना संभव हो पाता है। यही कारण है कि आज कई देश अपनी आबादी में संतुलित रूप से इजाफा चाहते हैं।

आशंका ऐसी भी जताई जा रही है कि राज्यों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून लाने से देश में परिवार बच्चों के ‘लिंग निर्धारण’ करने की तरफ दोबारा बढ़ने लगेंगे। इससे लिंगानुपात पर भी असर पड़ेगा, जो पहले ही भारत में कम है। पांच राज्यों में पंचायत चुनाव में ‘टू चाइल्ड पॉलिसी’ के परिणामों पर एक स्टडी में पाया गया कि इसकी वजह से लोग खुद को योग्य दिखाने के लिए अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ने लगे थे। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने देश में ‘टू चाइल्ड पॉलिसी’ लाने के लिए पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। तब कोर्ट के नोटिस का जवाब देते हुए केंद्र सरकार ने कहा था कि देश में परिवार कल्याण कार्यक्रम स्वैच्छिक है। अपने परिवार के आकार का फैसला खुद दंपती कर सकते हैं। तब केंद्र ने भी माना था कि निश्चित संख्या में बच्चों को जन्म देने की किसी भी तरह की बाध्यता हानिकारक होगी और जनसांख्यिकीय विकार पैदा करेगी।

गौरतलब है कि आजादी के वक्त देश की आबादी करीब 36 करोड़ थी और मौजूदा आबादी लगभग 14 5 करोड़ है। वहीं 2019 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2027 में चीन को पछाड़ कर भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा। 2050 तक जहां चीन की आबादी 140 करोड़ होगी, वहीं भारतीय नागरिकों की तादात 164 करोड़ तक पहुंच जाएगी। हालांकि आíथक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या वृद्धि की गति धीमी हुई है। वर्ष 1971-81 के मध्य वार्षकि वृद्धि दर जहां 2.5 फीसद थी, वहीं वर्ष 2011-16 में यह घटकर 1.3 फीसद पर आ गई। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के आंकड़े भी बताते हैं कि देश की जनसंख्या अब स्थिरता की ओर अग्रसर है। कुल प्रजनन दर यानी जन्म दर प्रति महिला 1984 के 4.5 के बरक्स 2016 में 2.3 पर आ गई है। ऐसा लंबे वक्त तक चला तो देश की आबादी न केवल स्थिर होगी बल्कि उसमें कमी भी आ सकती है।

दरअसल भारत में अभी भी एक बड़ी आबादी शिक्षा से दूर है इसलिए वह परिवार नियोजन के लाभों से अवगत नहीं है। शिक्षा में कमी के चलते ही लोग छोटे परिवार के फायदे के प्रति अभी भी पूरी तरह से जागरूक नहीं हो सके हैं। शिक्षा इंसान की सामाजिक-आर्थिक तरक्की के हर पहलू पर असर डालती है। इसलिए शिक्षा कार्यक्रमों को विशेष कर ग्रामीण इलाकों में और मजबूती से लागू करने की जरूरत है। इसके अलावा सरकार को देश में ग्राम और ब्लॉक स्तर पर परिवार नियोजन के लिए सघन जागरूकता अभियान चलाने चाहिए। विभिन्न माध्यमों से लोगों को छोटे परिवार के महत्व और फायदे को समझाने की कोशिश करनी चाहिए। केंद्र सरकार ने मिशन परिवार विकास जिला कार्यक्रम के तहत जिन 145 उच्च प्रजनन दर वाले जिलों की पहचान की है उनमें दो तिहाई जिले उत्तर प्रदेश और बिहार से हैं। न केवल एक परिपक्व आयु में शादी करने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, बल्कि शादी और पहले बच्चे के बीच दो साल का अंतर और दो बच्चों के बीच तीन साल का अंतर रखे जाने की जरूरत पर भी बल दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से जनसंख्या में स्थिरता आएगी। यदि आगामी 20 वर्षो तक देश की आबादी स्थिर रहती है तो अस्थिर विकास और बढ़ती बेरोजगारी पर लगाम लगाने में भी कामयाबी मिल सकती है।वैश्विक विशेष तौर पर चीन के अनुभवोंके आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि जनसंख्या वृद्धि को रोकना कोई असंभव कार्य नहीं है। और अगर भारत में हम ऐसा नहीं कर पाए हैं तो उसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि हम जनसंख्या की समस्या को हमेशा ही राजनीतिक चश्मे से देखते आए है जोकि एक बहुत बड़ी भूल है। आज जब हम अपनी कई ऐतिहासिक भूलों को सुधारने में लगे है तो ऐसे में अगर जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार करते हुए अगर प्रोत्साहन के साथ-साथ दंडात्मक प्रावधानों को भी जोड़ा जाए तो यह निश्चित रूप से देश के बेहतर भविष्य के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा।

India Edge News Desk

Follow the latest breaking news and developments from Chhattisgarh , Madhya Pradesh , India and around the world with India Edge News newsdesk. From politics and policies to the economy and the environment, from local issues to national events and global affairs, we've got you covered.
Back to top button