बढ़ते बच्चे, सिकुड़ते मैदान

नीतू गुप्ता
ज्यों-ज्यों गांवों से लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं, शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। दिल्ली की आबादी अब 1 करोड़ से अधिक हो गई है। जहां भी थोड़ी सी जगह खाली थी वह जगह कम्पलेक्सों ने ले ली या कार्पोरेशन के सुन्दर पार्को ने।
यह सच है पार्कों से शहर की सुंदरता में अंतर आता है और पर्यावरण के हिसाब से भी सुन्दर अच्छे नियोजित पार्क जरूरी हैं। इसके अलावा कई बड़े-बड़े प्लॉट स्कूल और उसके खेल मैदानों को दे दिए गए हैं। कई स्कूलों ने तो खेल के मैदान में भी स्कूल भवन बनाकर बच्चों को खेलने के स्थान से वंचित कर दिया है।
परिणाम यह हुआ है कि आज शहरों में बच्चों के खेलने के लिए उचित जगह नहीं है जिससे बच्चों का सही शारीरिक, मानसिक विकास ठीक से नहीं हो पा रहा है। बच्चे सड़कों और गालियों में खेलने के लिए मजबूर हो गए हैं। ऐसे में भी बच्चे खुलकर नहीं खेल पाते। गलियों में खेलने से घरों के और कारों के शीशे पौधे और गमले टूट सकते हैं।
इस समस्या से कैसे निपटा जाये? हर सरकारी व निजी स्कूल को निर्देश दिया जाए कि स्कूल और कॉलेज की छुट्टी के पश्चात् उनका खेल का मैदान जनसम्पति माना जाना चाहिए जिसमें आस पास के क्षेत्रों के बच्चों को खेलने की छूट होनी चाहिए। ऐसे में खेल के मैदान का एक गेट बाहर और दूसरा स्कूल भवन में जाये जिससे छुट्टी के पश्चात् स्कूल भवन की तरफ से गेट बन्द कर बाहर के गेट को खुला रखा जाए जिससे बच्चे आराम से जाकर खेल सकें। इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि शिक्षा संस्थान सामाजिक संस्थाएं हैं और उनकी सुविधाओं का समाज के लिए पूर्ण प्रयोग होना चाहिए।
पार्कों को इस प्रकार से बनाया जाना चाहिए कि पार्क का कुछ हिस्सा बच्चों के खेलने के लिए रखा जाए जिससे बच्चे खेल सकें व उनका सही विकास हो सके। उनका खाली समय टी. वी. और कम्यूटरों पर ही निर्भर न हो। खेलों हेतु स्थान न मिलने पर बच्चे घर घुस्सू और एकाकी स्वभाव के हो जाते हैं जिससे कई प्रकार की मानसिक कुठाएं पैदा हो रही हैं।