क्या भारत की विदेश नीति फेल हो गई है?

नीरज मनजीत

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम के बाद विपक्षी पार्टियाँ यह सवाल बड़ी ही शिद्दत से उठा रही हैं। क्या सचमुच हम वैश्विक बिरादरी में अपने ऊँचे मक़ाम से एकदम नीचे गिर पड़े हैं? इस प्रश्न का सीधा सरल उत्तर है–क़तई नहीं, बिल्कुल भी नहीं! वैश्विक समुदाय में भारत उसी मक़ाम पर है, जहाँ ऑपरेशन सिंदूर से पहले था। विपक्षी पार्टियां तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर चूकना नहीं चाहती हैं। फिर चाहे वह एक जिम्मेदार विपक्ष की गरिमा के प्रतिकूल ही क्यों न हो। युद्धविराम के बाद डोनाल्ड ट्रंप बड़ी ही खूबी से अपने अस्थिर और अवांछित बयानों से विपक्ष को ऐसे अवसर लगातार दिए चले जा रहे हैं।

वैश्विक समुदाय में ट्रंप एक बेहद अप्रत्याशित राजनेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद बहुत ही अल्प समय में वे अपनी “बहुचर्चित बचकानी अनप्रेडिक्टिबिलिटी” की वजह से अपने कई दोस्तों को असमंजस और दिक़्क़त में डाल चुके हैं। उनके अनचाहे बयानों के अक़्स में हम अपनी विदेश नीति का आकलन क्यों करें ?हमारे कुछ विपक्षी नेता और सोशल मीडिया के कुछ पत्रकार बड़ी ही बारीक़ी से यह नैरेटिव खड़ा कर रहे हैं कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान वैश्विक कूटनीति के मामले में भारत से आगे हो गया है। इसे वे प्रधानमंत्री मोदी की विफलता बताते हैं। जबकि हालिया अंतरराष्ट्रीय घटनाचक्र का विश्लेषण किया जाए तो यह नैरेटिव नितांत असत्य साबित हो जाता है।

ऐसे तमाम लोग डोनाल्ड ट्रंप के बड़बोलेपन का हवाला देते हैं, जिसमें उन्होंने भारत और पाकिस्तान-दोनों देशों-को महान बता दिया था। ट्रंप यहीं पर नहीं रुके। वे मोदी और शहबाज़ शरीफ़ को वैश्विक समुदाय के महान नेता बताकर दोनों को एक ही मेयार पर खड़ा कर देते हैं। यदि ट्रंप पाकिस्तान और शहबाज़ शरीफ़ को महान मान रहे हैं, तो वे मानते रहें। भारत को इससे क्या लेना-देना ? यह तो ख़ुद ट्रंप का ही सिरदर्द है। उन्हें पाकिस्तान और शहबाज़ शरीफ़ की महानता मुबारक़। इस ‘तथाकथित महान पदवी’ से भारत को क्योंकर फ़र्क़ पड़ेगा ? मोदी और भाजपा की अंध-विरोधी जमात संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के उस फ़ैसले की मिसाल देती है, जिसके तहत पाकिस्तान को आतंकवाद रोधी समिति का उपाध्यक्ष बना दिया गया है। अल्जीरिया इस समिति का अध्यक्ष है। भारत के लिए यह तो और भी अच्छी बात है। अब पाकिस्तानी सरकार को दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ काम करके दिखाना पड़ेगा। सिर्फ़ झूठ बोलने और बात-बहादुरी से काम नहीं चलेगा।

यहाँ बताना जरूरी है कि हर साल इस कमेटी को पुनर्गठित किया जाता है और 2022 के वर्ष में भारत को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था। ऐसे लोग यह नहीं बताएंगे कि 6 जून को ब्रासीलिया, ब्राजील में आयोजित ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में सर्वसम्मति से पहलगाम हमले की कड़ी निंदा करते हुए एकजुट होकर आतंकवाद से लड़ने का संकल्प लिया गया है। ब्रिक्स देशों में प्रमुख रूप से चीन के अलावा कई मुस्लिम देश भी शामिल हैं। मोदी और भाजपा का अंध-विरोधी तबका इस बात का हवाला भी देता है कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 40 बिलियन डॉलर और एशियन डेवलपमेंट बैंक से 800 मिलियन डॉलर बतौर कर्ज़ हासिल हो गए हैं। आश्चर्य है कि इसे भी प्रधानमंत्री मोदी की कूटनीतिक विफलता कहा जा रहा है। ये वैश्विक संस्थाएं पूरी तरह स्वायत्त हैं और वे अगर पाकिस्तान को कर्ज़ दे रही हैं, तो यह सिरदर्द उनका है।

पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी सरकार के नुमाइंदे और सैन्य प्रमुख भिक्षापात्र लिए देश-देशांतर घूमते रहते हैं। कभी कभार उनके भिक्षापात्र में ख़ैरात डाल भी दी जाती है। हाँ, भारत ने इनका विरोध जरूर किया था, क्योंकि पाकिस्तान का पिछला रेकॉर्ड यही बताता है कि वह इन पैसों का ज़्यादातर हिस्सा आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देने में ख़र्च करता है। वैश्विक समुदाय में पाकिस्तान की इज़्ज़त कितनी है, ये भी जान लीजिए। पिछले महीने 19 मई को पाकिस्तान के डिप्टी पीएम और विदेश मंत्री इशाक डार चीन के तीन दिवसीय प्रवास पर बीजिंग पहुँचे। एयरपोर्ट पर उनके इस्तक़बाल के लिए न तो कोई चीनी मंत्री मौजूद था और न ही किसी तरह के प्रोटोकॉल का अनुपालन किया गया। चीन सरकार के एक निचले स्तर के अधिकारी ने उनका स्वागत किया और सामान्य यात्रियों की तरह एयरपोर्ट की बस में बैठाकर उन्हें होटल रवाना किया गया।

पाकिस्तान चीन को अपना सबसे क़रीबी दोस्त मानता है, मगर चीन को पाकिस्तान की हक़ीक़त अच्छी तरह मालूम है कि ये लोग हर प्रवास में ख़ैरात मांगने ही आते हैं, इसीलिए एयरपोर्ट पर ही इशाक डार को उनकी हैसियत दिखा दी गई। पाकिस्तानी मीडिया में इस अपमान को ख़ूब उछाला गया, पर न तो इशाक डार को कोई फ़र्क़ पड़ा और न ही शहबाज़ शरीफ़ को, क्योंकि इनके अंदर स्वाभिमान नाम की कोई चीज है ही नहीं। पाकिस्तान के हुक्मरानों की ओर से झूठे दावे किस तरह से किए जाते हैं, इसकी दो मिसालें हाल ही में देखने में आईं। ऑपरेशन सिंदूर के कुछ ही दिनों बाद पाक मीडिया में यह ख़बर आई कि रूस और पाकिस्तान के बीच 26 मिलियन डॉलर की एक डील हुई है, जिसके तहत रूस यह रकम खर्च करके कराची में एक बंद पड़े स्टील प्लांट को चालू करेगा। ख़बर आने के दो दिनों बाद ही रूस ने इस रिपोर्ट को ख़ारिज करते हुए इसे भारत और रूस के रिश्तों को ख़राब करने का दुर्भावनापूर्ण प्रयास बता दिया।

ऐसे ही पाकिस्तान में पिछले दिनों एक नितांत असत्य ख़बर उड़ा दी गई कि पाक सैन्य प्रमुख आसिम मुनीर को 14 जून को वाशिंगटन में अमेरिकी सेना की 250 वीं वर्षगांठ परेड में बतौर मेहमान बुलाया गया है। इसके फ़ौरन बाद ही व्हाइट हाउस से इस ख़बर को ख़ारिज कर दिया गया कि मुनीर को क़तई नहीं बुलाया गया है। ताअज्जुब इस बात का है कि इन दोनों झूठी ख़बरों को हमारे यहाँ का मोदी विरोधी इकोसिस्टम ख़ुशी-ख़ुशी रस लेकर उछालता नज़र आया। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तानी सरकार और भारत  के मोदी विरोधी हलक़ों में कई दिनों तक इस असत्य ख़बर को उछाला जाता रहा कि पाक एयर फोर्स ने भारत के तीन राफाल फाइटर जेट गिरा दिए हैं। वैसे तो इस झूठ का पर्दाफ़ाश कई स्तरों पर कर दिया गया है। अब राफाल बनाने वाली फ्रांसीसी कंपनी डसॉल्ट ने भी एक बयान में पूरी दृढ़ता से पाकिस्तान के झूठ को ख़ारिज कर दिया है। यह एक तरह से डसॉल्ट की तरफ़ से पाकिस्तान को चुनौती है कि शहबाज़ शरीफ़ संसद में दिए अपने बयान को साबित करके दिखाएँ।

पिछले दिनों मोदी विरोधी कैम्प में यह चर्चा भी ज़ोरों पर थी कि कनाडा के शहर कानानास्किस में आयोजित जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी को आमंत्रित नहीं किया जा रहा है। जी-7 के शिखर सम्मेलन में हर बार ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और यूक्रेन के प्रधानमंत्रियों के साथ पीएम मोदी को विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर बुलाया जाता है। इस बार उन्हें विधिवत आमंत्रण देने में कुछ विलंब हुआ, तो इसे भी मोदी की कूटनीतिक विफलता बताकर कांग्रेस ने सवाल उठाने शुरू कर दिए। कुछ दिनों बाद जब कनाडा के नए-नवेले प्रधानमंत्री मार्क जे कोनी ने फ़ोन करके मोदी को विशेष तौर पर आमंत्रित किया, तो ऐसे लोगों के पास ख़ामोशी बरतने के अलावा कोई चारा नहीं था।

पिछले हफ़्ते पीएम मोदी तीन देशों की यात्रा पर थे। पहले वे साइप्रस में गए। जियो पॉलिटिक्स और कारोबारी वार्ता की दृष्टि से यह प्रवास बहुत ही सफल रहा। साइप्रस के राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडौलिडेस ने पीएम मोदी को देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया। साइप्रस एक छोटा सा द्वीप देश है। कुल आबादी मात्र 10 लाख की है, मगर रणनीतिक नजरिए से भारत के लिए यह देश बहुत ही महत्वपूर्ण है। साइप्रस के उत्तरी भाग पर तुर्किए ने नाजायज कब्ज़ा किया हुआ है। भारत हमेशा इस कब्ज़े की ख़िलाफ़त करता रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान तुर्किए ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया था। वैसे भी तुर्किए कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान की हिमायत करता है। साइप्रस के प्रवास के दौरान पीएम मोदी ने तुर्किए को साफ़ संदेश दिया है कि संयुक्त राष्ट्र में वे पूरी तरह साइप्रस का समर्थन करेंगे।

साइप्रस के बाद पीएम मोदी ने कनाडा में जी-7 के शिखर सम्मेलन में शामिल हुए। कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क जे कोनी ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। कोनी से उनकी वार्ता भी हुई है। कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो की वजह से भारत के साथ द्विपक्षीय रिश्ते ख़राब हो गए थे, इस यात्रा से निश्चय ही ये रिश्ते सुधरेंगे। यहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर, इटली की पीएम जॉर्जिया मेलोनी, दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा और ऑस्ट्रेलियन प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानिज से मुलाकात की। पीएम मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी फोन पर बात की है। अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ पीएम मोदी की यह बातचीत करीब 35 चली। कुल मिलाकर भारत की विदेश नीति, अपना स्वाभिमान और स्वायत्तता सुरक्षित रखते हुए, बिल्कुल सही दिशा में चल रही है और विपक्ष के नैरेटिव में कोई दम नहीं है।

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