बाल अपराधों के लिए उत्तरदायी तत्वों की पड़ताल

सीताराम गुप्ता

मानव सभ्यता के विकास के साथ ही जुड़ा हुआ है अपराध का इतिहास भी लेकिन वर्तमान समय में उसके स्वरूप में काफी अंतर आ चुका है और समय के साथ यह तेज़ी से बदलता भी जा रहा है। आदमी पहले अपना पेट भरने के लिए मजबूरी में अपराध करने को विवश होता था लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज अपराध व्यक्ति की जीवनशैली तक से जुड़ गया है।
पहले अपराध करने वालों में महिलाओं और बच्चों की संख्या बहुत कम अथवा नगण्य होती थी लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। आज नाबालिग किशोर जिस प्रकार के अपराध कर रहे हैं और जैसे कर रहे हैं, वह समाज और प्रशासन दोनों के लिए अत्यंत चिंता का विषय है। बाल अपराधों को कम करने अथवा जड़ से मिटाने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले बाल अपराधों की प्रकृति और अपराध करने के लिए उत्तरदायी तत्वों की पड़ताल की जाए।

सबसे पहला तत्व है कानून में खामी। दो दशक पुराना दिल्ली के ख़ूनी दरवाज़े में हुआ बलात्कार काण्ड हो, दिसंबर 2०12 का दिल्ली का ही निर्भया बलात्कार काण्ड हो अथवा मुंबई का शक्ति मिल कंपाउण्ड बलात्कार काण्ड, पिछले दिनों रेप, हिंसा, छेड़छाड़ व उत्पीडऩ संबंधी जितने भी मामले सामने आए, उनमें बचाव पक्ष की ओर से विशेष रूप से जिस बात का प्रयास किया गया, वो है अपराधियों, आरोपियों अथवा अभियुक्तों को नाबालिग सिद्ध करने का प्रयास लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या एक नाबालिग़ को लूट-पाट, हत्या, व्यभिचार, रेप, बंधक बनाने, अपहरण अथवा अन्य प्रकार के संगीन अपराध करने का कानूनी, सामाजिक अथवा अन्य किसी भी प्रकार से कोई विशेष अधिकार प्राप्त है? नहीं, बिलकुल नहीं।

स्पष्ट है कि बाल अपराध कानून का सहारा लेकर, उसे तोड़-मरोड़ कर अपराधियों को बचाने के प्रयास किए जाते हैं क्योंकि बाल अपराध कानून बाल अपराधी को सामान्य अपराधी की तरह सज़ा देने की बजाय उसे बाल सुधार गृह भेज देता है और वो भी सिर्फ उसके बालिग होने की उम्र तक। बाल अपराधी की उम्र और उसके भविष्य को देखते हुए उसे सामान्य अपराधी की तरह सज़ा नहीं दी जा सकती।

इस तर्क में दम है लेकिन जब एक नाबालिग़ बालिग़ों से भी ज़्यादा संगीन जुर्म कर सकता है, एक जघन्य अपराध कर सकता है तो उसे भी एक सामान्य अपराधी की तरह अवश्य ही सज़ा दी जानी चाहिए, इस तर्क में भी कम दम नहीं। जब उसे किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हे तो छूट क्यों? सज़ा देने में अपराध की प्रकृति महत्वपूर्ण होनी चाहिए न कि अपराधी की भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज)।

नाबालिग़ कौन?
जब कोई कम उम्र व्यक्ति बड़ा अपराध करता है तो क्या उसे किसी भी दृष्टि से नाबालिग़ कहना उचित होगा? व्यावहारिक दृष्टि से भी जो आदमी बड़ा काम करे, बड़ा कहलाता है, अब चाहे उसकी उम्र जो भी हो और जो आदमी घटिया काम करे छोटा कहलाता है चाहे उसकी उम्र अस्सी साल ही क्यों न हो।

भौतिक व मानसिक उम्र
जहाँ तक कानून का प्रश्न है, एक नाबालिग़ को जेल की बजाय सुधारगृह में भेजा जाता है ताकि वह सुधर सके और आगे का जीवन ठीक से व्यतीत कर सके लेकिन किस उम्र तक कोई नाबालिग़ होता है, इसका प्रावधान भी कानून में ही है। जहाँ तक कानून अथवा न्याय व्यवस्था का प्रश्न है, वह कोई शाश्वत व्यवस्था नहीं होती। कानून तो समाज को व्यवस्थित करने के लिए समाज की आवश्यकता के अनुसार ही बनाया जाता है। पहले समाज होता है तब उसके लिए कानून बनाया जाता है। जैसा समाज वैसा कानून। इसीलिए हर देश के कानून में अंतर मिलता है।

समाज परिवर्तनशील है। समाज बदलता है, उसका व्यवहार बदलता है तो उस परिवर्तित समाज को व्यवस्थित करने के लिए कानून व्यवस्था में भी परिवर्तन ज़रूरी हो जाता है। कानून में जब सेक्स करने की उम्र घटाई जाती है तो उसका भी एक उचित आधार है और वो यह कि आज के किशोरों में कम उम्र में ही परिपक्वता आ रही है। जब सेक्स करने की उम्र घटाई जा सकती है तो उसी उम्र के युवक को यौन अपराध में लिप्त होने अथवा रेप करने पर कठोरतम सज़ा क्यों नहीं दी जा सकती?

यदि हम अठारह वर्ष की उम्र को ही मानदण्ड मानकर चलते हैं तो एक बात तो निश्चित है कि जो आपराधिक पृष्ठभूमि अथवा आपराधिक मनोवृत्ति के लोग हैं उन्हें अठारह वर्ष की उम्र तक अपराध करने में कम संकोच होगा। कानून की ख़ामी अथवा लचीलेपन के कारण वे निर्द्वंद्व होकर अपराध कर सकेंगे।

जिन्हें अपराध करने में आनंद आता है वे लोग अठारह वर्ष का होने से पहले बेख़ौफ़ होकर लूट-पाट, हत्या, व्यभिचार, रेप, बंधक बनाने, अपहरण अथवा अन्य प्रकार के संगीन अपराध करेंगे क्योंकि यदि पकड़े भी गए तो दो-चार महीनों में अठारह वर्ष पूरे करने पर सुधारगृह से बाहर आ जाएँगे और ऐसे लोग जिन्हें उनके अपराधों की सही सज़ा नहीं मिलती, आगे अपराध करने के लिए उनके हौसले ज़्यादा बुलंद हो जाते हैं।

एक बाल अपराधी को सुधारगृह भेजने का भी एक कारण है जो उचित ही जान पड़ता है। एक नाबालिग़ को जेल की बजाय सुधारगृह इसलिए भेजा जाता है ताकि उस युवक का भविष्य नष्ट न हो बेशक उसने किसी की जान ले ली हो अथवा किसी का जीवन नरक बना डाला हो। इस बात की भी क्या गारंटी है कि सुधारगृह से वो एक अच्छा नागरिक बन कर ही निकलेगा या फिर से अपराध नहीं करेगा? इस बात के प्रयास तो जेल में भी किए जाते हैं कि सज़ायाफ्ता या मुजरिम अपनी सज़ा काटने के बाद एक अच्छे व्यक्ति के रूप में ही बाहर निकलें।

एक स्थिति और देखिए। दो व्यक्ति मिलकर एक अपराध करते हैं। एक की उम्र अ_ारह वर्ष से एक दिन कम है जबकि दूसरे की अ_ारह वर्ष से एक दिन ज़्यादा। ऐसे में एक को सुधारगृह भेजना तथा दूसरे को जेल भेजना कानून की दृष्टि से जायज़ है लेकिन क्या दोनों के साथ न्याय हुआ है? उनको सही सज़ा मिली है? यदि अपराध में कम उम्र वाले की नृशंसता भी अधिक हो तो ऐसा न्याय युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। कम उम्र के कारण अपराध की प्रकृति को नजऱंदाज़ करना ठीक नहीं लगता। जो नाबालिग़ सेक्स ही नहीं, रेप जैसा जघन्य अपराध कर सकता है, उसे नाबालिग़ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता चाहे उसकी भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज) कम ही क्यों न हो क्योंकि उसका कार्य अथवा अपराध बतलाता है कि उसकी मानसिक उम्र (मेंटल एज) उसकी भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज) से कहीं ज़्यादा है। मनुष्य की उन्नति, उसके विकास अथवा विनाश में उसकी मानसिक उम्र (मेंटल एज) का महत्व है, उसकी भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज) का नहीं।

पिछले दिनों एक कम उम्र के किशोर को विश्वविद्यालय की परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गई थी और उस विद्यार्थी ने विश्वविद्यालय की परीक्षा अच्छी तरह पास भी की। उसको अनुमति देने का आधार यही था कि उसकी भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज) बेशक कम है लेकिन विश्वविद्यालय की परीक्षा में बैठने के लिए उसकी मानसिक उम्र (मेंटल एज) पर्याप्त है।
जब एक कम भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज) के किशोर को उसकी अपेक्षाकृत अधिक मानसिक उम्र (मेंटल एज) के कारण एक बड़ा कार्य करने की अनुमति देने पर विचार किया जा सकता है तो एक कम भौतिक उम्र (फिजिक़ल एज) के किशोर को उसके अपराध के अनुसार उसकी मानसिक उम्र (मेंटल एज) निर्धारित कर उसे सामान्य बालिग़ अपराधियों की तरह सज़ा देने पर भी विचार किया जा सकता है और इसके लिए कानून में परिवर्तन करना अपेक्षित हो तो वह भी होना चाहिए।

India Edge News Desk

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