अयातुल्ला अली खामेनेई के नेतृत्व वाली ईरान की सत्तारूढ़ व्यवस्था वर्तमान में इजरायल के हवाई हमलों के कारण भारी दबाव

तेहरान
अयातुल्ला अली खामेनेई के नेतृत्व वाली ईरान की सत्तारूढ़ व्यवस्था वर्तमान में इजरायल के हवाई हमलों के कारण भारी दबाव में है। इजरायली सेना उच्च पदस्थ अधिकारियों, सुरक्षा तंत्र और सरकारी मीडिया को निशाना बना रही है। ईरान के सबसे बड़े सैन्य अधिकारी पहले ही मारे जा चुके हैं। इजरायल ने साफ कहा है कि उसका इरादा ईरान में सत्ता परिवर्तन का है। यहां तक कि इजरायल ने खामेनेई को भी खत्म करने की बात कही है। ऐसे में सवाल उठता है कि मौजूदा सत्ताधारी लोगों के अलावा, ईरान में विपक्ष कौन है? दशकों से चली आ रही राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों की लहर के बावजूद, ईरान का विपक्ष खंडित और असंगठित नजर आता है। विभिन्न गुटों और वैचारिक मतभेदों के कारण यह विपक्ष देश के भीतर कोई मजबूत संगठित उपस्थिति स्थापित करने में असमर्थ रहा है। आइए ईरान की राजनीतिक व्यवस्था को विस्तार से समझते हैं।

ईरान की सत्तारूढ़ व्यवस्था के खिलाफ विरोध का इतिहास लंबा और जटिल रहा है। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से, विभिन्न समूहों ने समय-समय पर शासन के खिलाफ आवाज उठाई है। हालांकि, ये समूह एकजुट होने में असफल रहे हैं, जिसके कारण उनका असर सीमित रहा है। विपक्षी समूहों में राजशाही समर्थक, इस्लामी सुधारवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रवादी, और जातीय/क्षेत्रीय स्वायत्तता आंदोलन शामिल हैं। इसके अलावा, निर्वासित समूह जैसे मोजाहेदीन-ए-खल्क (MEK) भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

शाही समर्थक गुट (Monarchists)
1979 की इस्लामी क्रांति से पहले ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी देश के अंतिम शासक थे। क्रांति के बाद ईरानी राजा को देश छोड़ना पड़ा और 1980 में मिस्र में उनका निधन हो गया। उनके पुत्र रजा पहलवी अब अमेरिका में रहते हैं। वह शांतिपूर्ण असहयोग और जनमत संग्रह के माध्यम से सत्ता परिवर्तन की मांग करते हैं। हालांकि प्रवासी ईरानियों के एक वर्ग में शाही व्यवस्था यानी राजा की वापसी के प्रति झुकाव है, लेकिन ईरान के भीतर इस विचार की लोकप्रियता को लेकर संदेह बना हुआ है। अधिकांश ईरानी आज उस दौर को याद भी नहीं कर सकते क्योंकि वे क्रांति के बाद पैदा हुए हैं। शाही युग की यादें एक ओर जहां आधुनिकता और समृद्धि से जुड़ी हैं, वहीं कई लोग उस समय की असमानता और दमन को भी नहीं भूलते। स्वयं शाही समर्थकों के बीच भी एकजुटता का अभाव देखा जाता है। रजा पहलवी ने हाल के वर्षों में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना के लिए "महसा चार्टर" जैसे पहलों का समर्थन किया है, जिसमें मसीह अलीनेजाद, नाजनीन बोनियादी, शिरीन एबादी, हामेद इस्माईलियोन, अब्दुल्ला मोहतादी जैसे प्रमुख विपक्षी नेताओं ने हिस्सा लिया। यह चार्टर शांतिपूर्ण तरीके से शासन को उखाड़ फेंकने का एक ढांचा प्रस्तुत करता है।

मुजाहिदीन-ए-खल्क (MEK)
मुजाहिदीन-ए-खल्क (MEK) कभी शाह शासन और अमेरिका विरोधी लेफ्ट विचारधारा का बड़ा नाम हुआ करता था। परंतु 1980-88 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान इराक के साथ खड़ा होने के कारण इस संगठन को आज भी देश में गद्दार की नजरों से देखा जाता है- यहां तक कि इस्लामी गणराज्य के विरोधी भी इसे क्षमा करने को तैयार नहीं हैं। 2002 में ईरान के गुप्त यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम का खुलासा करने वाला यही समूह था। लेकिन वर्तमान में ईरान के भीतर इसकी सक्रियता न के बराबर है। संगठन के संस्थापक मसूद रजवी बीते दो दशकों से लापता हैं और उनकी पत्नी मरियम रजवी अब इसका नेतृत्व कर रही हैं। हालांकि पश्चिमी देशों में इसका सक्रिय नेटवर्क है, परंतु मानवाधिकार समूह इसे एक "संप्रदाय" की तरह चलाने का आरोप भी लगाते हैं, जिसे संगठन नकारता है।

इस्लामी सुधारवादी (Reformists)
ईरान के भीतर कुछ विपक्षी समूह इस्लामी गणतंत्र के ढांचे के भीतर सुधार की वकालत करते हैं। इनमें पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद खातामी, हसन रूहानी और अली अकबर हाशमी रफसंजानी जैसे नेताओं के समर्थक शामिल हैं। ये सुधारवादी सख्त इस्लामी नियमों में ढील और अधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग करते हैं। हालांकि, ये समूह मौजूदा शासन के खिलाफ पूर्ण विद्रोह के बजाय सिस्टम के भीतर बदलाव पर जोर देते हैं, जिसके कारण इनकी विश्वसनीयता विपक्ष के अन्य कट्टरपंथी गुटों के बीच कम हो जाती है।

जातीय अल्पसंख्यक समूह
ईरान में कुर्द, अजरबैजानी, अरब और बलोच जैसे जातीय समूह भी विपक्ष का हिस्सा हैं, जो अधिक स्वायत्तता या कुछ मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करते हैं। ये समूह अक्सर केंद्र सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में शामिल रहे हैं। हालांकि, इनके बीच वैचारिक और क्षेत्रीय मतभेदों के कारण एकजुटता की कमी है, जिससे ये समूह राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी विपक्ष के रूप में उभरने में असमर्थ रहे हैं। कुर्द और बलूच जैसे सुन्नी मुस्लिम अल्पसंख्यक लंबे समय से शासन व्यवस्था से असंतुष्ट हैं। देश के पश्चिमी हिस्से में कुर्द समूहों ने अक्सर हथियारबंद विद्रोह किया है। वहीं, बलूचिस्तान क्षेत्र में स्थिति और अधिक जटिल है- कुछ समूह जहां केवल धार्मिक स्वतंत्रता की मांग करते हैं, वहीं कुछ चरमपंथी तत्व अल-कायदा जैसे संगठनों से जुड़े हुए हैं।

India Edge News Desk

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