भारतीय संस्कृति में अति पावन दिन : चैत्र मास की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा

डॉ. वन्दना सेन

अंग्रेजी नव वर्ष के बढ़ते प्रभाव के बीच राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर भारतीय नागरिकों को सचेत करते हुए लिखते हैं कि ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं, है अपना ये त्यौहार नहीं, है अपनी ये तो रीत नहीं, है अपना ये त्यौहार नहीं। इन पंक्तियों का आशय पूरी तरह से स्पष्ट था कि अंगे्रजी नव वर्ष हमारा अपना नहीं, बल्कि अंग्रेजी द्वारा भारतीयता को मिटाने के लिए भारत पर थोपा गया था। विसंगति यह है कि अंगे्रज जो भारत में छोड़कर गए थे, उसे हमने अपना मान लिया। उसके पीछे मूल कारण यही था कि हम अपनी भारतीय संस्कृति को विस्मृत कर चुके थे। अपने स्वत्व का बोध भी हमको नहीं रहा था। जब हम स्वत्व की बात करते हैं तो स्वाभाविक रूप से इसमें वह सब दिखाई देगा, जो मूल भारत की कल्पना था।

अब पहला सवाल यह आता है कि अपना मूल भारत क्या था? क्या हमें इसका भान है? यकीनन नहीं, क्योंकि आज जो भारत दिख रहा है, उसे पहले मुगलों ने अपने हिसाब से बनाया और फिर अंगे्रजों ने भारतीय समाज को हमें अपनी संस्कृति से विमुख कर दिया। विचार कीजिए कि भारत का स्वत्व क्या है? अगर भारत का स्वत्व जानना है तो हमें मुगलों से पूर्व के भारत का अध्ययन करना होगा, वही वास्तविक भारत है। आज हम भले ही अंग्रेजी दिनचर्या का उपयोग करते हैं, लेकिन आज भी यह सत्य है कि अंग्रेजी दैनंदिनी का प्रयोग हम अपने त्यौहारों में कभी नहीं करते। क्योंकि हमारे सारे त्यौहार सांस्कृतिक और प्राकृतिक हैं। वे प्रकृति के हिसाब से ही तय किए जाते हैं। इसीलिए प्रारंभ से ही भारत के समस्त त्यौहार दिशा बोध कराने वाले रहे हैं। वसंत के त्यौहार को ही ले लीजिए, इसमें प्राकृतिक बोध होता है। वसंत के पश्चात पतझड़ और फिर प्रकृति में नवीनता का उल्लास। यही उल्लास प्राकृतिक नव वर्ष का आभास कराता है। इसीलिए यही भारत का अपना नव वर्ष है, अंगे्रजों वाला नहीं।

भारतीय की संस्कृति में पुरातन काल से नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से ही माना जाता रहा है। इस तिथि को भारतीय संस्कृति में अति पावन दिन माना गया है। क्योंकि इसी प्रतिपदा दिन रविवार को सूर्योदय होने पर ब्रह्मा ने सृष्टि के निर्माण की शुरुआत की थी। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। यह प्राकृतिक संयोग ही है कि अब भारत के नागरिक अपनी मूल की ओर लौट रहे हैं। जो लोग कल तक अपने नव वर्ष मनाने वाले समाज की हंसी उड़ाता था, वे स्वयं होकर नव वर्ष मनाने की ओर प्रवृत हो रहे हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारत अपने स्वत्व की ओर लौट रहा है। भारत के नागरिकों को यह आभास होने लगा है कि हमारा देश किसी भी मामले में दुनिया के देशों से पीछे नहीं रहा, बल्कि उसे षड्यंत्र पूर्वक पीछे कर दिया गया था। अब यह षड्यंत्र भी समझ में आने लगा है। इसलिए अब बहुत बड़ी संख्या में भारत का अपना नव वर्ष मनाने के लिए एकत्रित होने लगे हैं।

वर्तमान में जिस प्रकार से श्रद्धा केन्द्रों पर भीड़ बढ़ रही है, वह इस बात का प्रमाण है कि भारत का युवा जाग्रत हो रहा है। उसे सांस्कृतिक रूप से अपने पराए का बोध हो रहा है। समाज अपने विवेक से श्रेष्ठ और बुराई के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने लगा है। समाज के व्यवहार में भी व्यापक परिवर्तन आया है। जो बुद्धिजीवी पहले हर बात की अपने हिसाब से व्याख्या करते थे, आज वे भी भारतीय संस्कृति के अनुसार चलते की ओर प्रवृत हुए हैं। इसलिए अब भारतीय समाज को भ्रमित करने के दिन बहुत दूर जा चुके हैं।

आज विश्व के कई देशों के नागरिक अपनी भोगवादी विकृति को छोड़कर भारतीय संस्कृति की ओर उन्मुख हो रहे हैं। धार्मिक दृष्टि से आस्था के क्षेत्र के रूप में विद्यमान नगरों में यह दृश्य आम हो गए हैं। आज गंगा के घाट पर विदेशी नागरिक भजन करते हुए मिल जाते हैं तो ब्रज की गलियों में कृष्ण भक्ति में लीन अनेक विदेशी नागरिक भी दिखाई देते हैं। भारत की संस्कृति में इस बात की स्पष्ट कल्पना है कि भगवादी विकृति से मन विकृत हो जाता है। आत्मा की शुद्धि करना है तो उसके लिए भारतीय संस्कृति ही सर्वोत्तम है। जब विदेशी लोग भारतीय संस्कृति को पसंद करके उसकी राह पर चलने के लिए आगे आ रहे हैं, तो फिर यह हमारी अपनी है। यह हमारा स्वत्व है। इसलिए हम अपना नव वर्ष धूमधाम से मनाएं और अपने जीवन को सफल करें।
(लेखिका शिक्षाविद् व सहायक प्राध्यापक हैं)

India Edge News Desk

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