अगला आम चुनाव / बंगाली पर भारी बिहारी

शंकर जालान

शीर्षक में लिखे बंगाली का तात्पर्य ममता बनर्जी और बिहारी का संबंध नीतीश कुमार से। हालिया घटनाक्रम को देखे तो ऐसा प्रतीत होता है कि 2024 में होने वाले आम चुनाव में बंगाली पर बिहारी भारी पड़ रहा है। राजनीति में समानांतर अनुभव रहने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस प्रमुख व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बिहार के मुख्यमंत्री व जनता दल यूनाइटेड प्रमुख नीतीश कुमार से राष्ट्रीय स्तर और प्रधानमंत्री की दौड़ या यूं कहे कि दिल्ली की दौड़ में क्यों पिछड़ रही हैं, यह एक गंभीर मसला है। जबकि दोनों (ममता व नीतीश) कभी ना कभी भाजपा के सहयोगी रहे हैं और नीतीश तो पिछले दिनों तक भाजपा के समर्थन से ही बिहार में सरकार चला रहे थे। अब सार्वजनिक तौर पर दोनों के दोनों भाजपा को पटखनी देने में लगे हैं और अंदरखाने अगला प्रधानमंत्री बनने के लिए एक-दूसरे को पछाड़ने में भी। अगला आम चुनाव 2024 के अप्रैल-मई में होना है, इस गणित से अभी लोकसभा चुनाव में करीबन 20-21 महीने का समय बाकी हैं, लेकिन भाजपा के साथ-साथ विपक्ष भी अभी से चुनाव की तैयारी और रणनीति बनाने में जुट चुका है। पिछले महीने तक जिस आम चुनाव (2024) को मोदी बनाम ममता माना जा रहा था, बिहार की ताजा घटना के बाद स्थिति बिल्कुल बदल गई। अब लड़ाई मोदी बनाम विपक्ष, मोदी बनाम अलग मोर्चा, मोदी बनाम तीसरा मोर्चा और मोदी बनाम विपक्ष का प्रधानमंत्री कौन के तौर पर देखी जा रही हैं, जिसमें नीतीश की तुलना में ममता पिछड़ती नजर आ रही है। हालांकि नीतीश और ममता दोनों विगत में भाजपा के सहयोगी रहे हैं, दोनों भाजपाई की अगुवाई वाली सरकारों में केंद्रीय मंत्री भी रहे हैं, दोनों कई-कई सालों से अपने-अपने सूबे के मुख्यमंत्री हैं। दोनों की अपनी एक अलग पहचान है। ममता बनर्जी को जहां बंगाल में ‘अग्नि कन्या’ कहां जाता है, वही ं बिहार में नीतीश कुमार को ‘सुशासन बाबू’ कह कर पुकारा जाता है। हर वक्त, हर मंच और हर मोर्चा पर केंद्र सरकार विशेष कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आड़े हाथों लेने और घेरने के बावजूद अगर प्रधानमंत्री की दौड़ में नीतीश ममता से आगे हैं तो यह बंगाल और तृणमूल कांग्रेस और विशेष कर ममता बनर्जी के लिए न केवल सोचनीय विषय है, बल्कि चिंतनीय विषय भी है। ममता को इस बात पर गंभीरता से मनन करना चाहिए कि केंद्र सरकार के खिलाफ सालों से लगातार बोलकर उन्होंने (ममता) ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक जो छवि बनाई थी, नीतीश कुमार के एक ही झटके या यूं कहें कि पैतरा बदलते ही वह धूमिल हो गई। जानकारों की माने तो ‘अग्नि कन्या’ के नाम से मशहूर ममता बनर्जी के ‘सुशासन बाबू’ (नीतीश कुमार) से पिछड़ने की मूल वजह ममता की तुनकमिजाजी है, उनकी जल्दबाजी है। इसके अलावा दोनों में एक बड़ा अंतर है बोलने का। नीतीश कुमार जहां सोचकर बोलते हैं, वहीं ममता बोलने के बाद सोचती है, जो पार्टी के साथ-साथ खुद उनके लिए भी हानिकारक होता है।

बीते साल (2021) हुए बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व वाममोर्चा को शून्य (0) और भाजपा को करारी शिकस्त देने के बाद जीत की हैट्रिक लगाने वाली ममता बनर्जी में विपक्ष को मोदी का विकल्प नजर आ रहा था। तमाम विपक्ष को लग रहा था कि भाजपा के विजय रथ को अगर 2024 में रोकना है तो ममता रुपी इंजन के साथ डिब्बा बनना पड़ेगा, तभी मोदी यानी भाजपा को जीत की हैट्रिक लगाने से रोका जा सकता है, लेकिन बंगाल में खुलती एक के बाद एक घोटालों की परत ने ममता को न केवल दिन में तारे दिखा दिए, बल्कि देखते ही देखते ममता को पछाड़ नीतीश आगे निकल गए। नीतीश के आगे निकलने की एक महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि उनका लक्ष्य हर हाल में भाजपा को हराना है, हालांकि लक्ष्य तो ममता का भी यही है, लेकिन ममता के साथ कांग्रेस और वाममोर्चा के रुप में किंतु-परंतु जुड़ा है। शायद यही वजह है कि ममता पिछड़ रही है। ममता को केंद्रीय सत्ता अवश्य चाहिए, लेकिन अलबत्ता के साथ और नीतीश कुमार को केवल और केवल केंद्रीय सत्ता चाहिए और शायद प्रधानमंत्री की कुर्सी भी। नीतीश कुमार भलीभांति यह जानते हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के साथ रहते हुए वे कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सकते, इसलिए उन्हें एक दांव खेला राजग से दोस्ती तोड़ और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) से हाथ मिलाकर। नीतीश कुमार का तीर निशाने पर लगा तो ठीक, वर्ना आम चुनाव के नतीजों के बाद कैसे फिर राजग में शामिल होना है, यह हुनर भी उनके पास है।

राजनीति के पंडितों का कहना है कि नीतीश कुमार का यही जोड़-घटाव (गणित), यही सहनशीलता और सूझबूझ तो ममता की राह में रोड़ा है ही, उससे भी बड़ा रोड़ा है भ्रष्टाचार के मामले में तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं की गिरफ्तारी।

विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार जीत हासिल के के बाद सूबे के हर चुनाव में तृणमूल को जीत ही मिली और इन नतीजों के बलबूते ममता को दिल्ली करीब लगने लगी थी, लेकिन चिटफंड, कोयला, मवेशी और शिक्षक भर्ती घोटाले कहीं-न-कहीं ममता के रास्ते में रोड़ा बन रहे हैं।

मालूम हो कि बिहार में रातोंरात नीतीश कुमार ने भाजपा गठबंधन छोड़ और तेजस्वी यादव के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई। पड़ोसी राज्य बिहार की इस घटना न केवल वहां राजनीतिक परिदृश्य बदला, बल्कि दिल्ली में विपक्षी खेमे के गणित को भी बदल दिया।

अगले आम चुनाव के मद्देनजर नीतीश कुमार विरोधी दल को एकजुट करने में जुटे हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्रपति चुनाव में विरोधी दलों को एकजुट करने की ममता बनर्जी की कोशिश और उसके बाद उपराष्ट्रपति चुनाव के बाद विरोधी दलों और कांग्रेस के साथ मनमुटाव होना जगजाहिर है। जानकारों का मानना है ममता बनर्जी की तुलना में विपक्षी खेमा नीतीश का पक्ष लेगा, क्योंकि नीतीश कुमार को वामपंथी खेमे के साथ गठबंधन में कोई कठिनाई नहीं, लेकिन ममता को है।

India Edge News Desk

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