पाला बदलने की नितीश की राजनीति

अवधेश कुमार
पूरे देश में सर्वेक्षण करा लीजिए। जिनका किसी राजनीतिक दल से लेना-देना नहीं उनमें से कोई नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से अलग होने को सही करार नहीं देगा। कोई नहीं मानेगा कि इसके साथ नीतीश के 2024 लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी विरोधी सर्वसम्मत चेहरा बनने तथा भाजपा का ग्राफ गिरने की शुरुआत हो गई है। कुछ विपक्षी दल एवं मोदी व भाजपा के किसी सूरत में विनाश होने की ग्रंथि वालों से पूछिए तोअब मोदी एवं भाजपा को निर्णायक चुनौती मिलने की शुरुआत हो गई है। निस्संदेह, भाजपा की चुनौतियां बढ़ गई है। लंबे समय से गठबंधन के कारण बिहार में भाजपा का कोई सशक्त लोकप्रिय व्यक्तित्व उभर नहीं सका। नीतीश द्वारा परित्याग किए जाने के बावजूद भाजपा ने बिहार में कई अन्य राज्यों की तरह स्वयं को अकेले बड़ी शक्ति बनाने का वैसा उपक्रम नहीं किया जैसा करना चाहिए था। नीतीश के पाला बदलने के खतरे को भांपते हुए भी भाजपा ने पूर्वोपाय के कदम नहीं उठाए। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे खेमे के लिए उनकी कल्पनाओं के अनुरूप मैदान साफ है। नीतीश ने 2015 मे भी राजद के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा, सरकार बनाई। दो वर्ष से कम समय में ही नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़ लिया । गठबंधन बनाए रखने, बनाने और तोड़ने के रिकॉर्ड का पूरा सेहरा नीतीश के सिर ही है। इस मायने में वे भारतीय राजनीति में पहले नेता हैं जो गठबंधन बनाते और तोड़ते हुए भी मुख्यमंत्री बने रहे हैं। प्रश्न है कि मोदी और भाजपा के पतन की आधारशिला मानने वाले इस सिद्धांतविहीन स्थिति को किस रूप में लेते हैं?
पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करने के लिए नीतीश के संदर्भ में एक रोचक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है। हम आप यह कथन सुनते हैं कि राजनीति में न कोई स्थाई शत्रु होता है और न मित्र । भारतीय राजनीति में कोई नेता इसे पूरे गर्व के साथ लगातार चरितार्थ कर रहा है तो वह नीतीश ही हैं। लगता है जैसे उन्होंने अपना आदर्श वैसे पेंडुलम को बना लिया है जो कुछ समय के लिए एक ओर फिर दूसरी ओर जाता रहेगा। कहा जा सकता है कि नीतीश ने एक चक्र बनाया है जिसमें वे सत्ता के शीर्ष पर स्थाई रहेंगे, पर बिहार का कोई दल न स्थाई विपक्ष होगा न सत्तापक्ष। बस, शर्त एक ही है उनके अहंवादी व्यक्तित्व की तुष्टि होती रहे। क्या ऐसे व्यक्ति को बिहार और भारत की जनता भविष्य में भी अपने नेता के रूप में स्वीकार कर सकती है? निष्पक्षता से विचार करें तो ऐसा कोई कारण नहीं दिखेगा जिससे गठबंधन तोड़ने का फैसला तार्किक साबित हो। जो तर्क जदयू के नेता दे रहे हैं वे ऐसे आरोप हैं जो एकपक्षीय अहंवादी आत्मकेंद्रित विचारधारा से निकलती हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा कि पार्टी के अंदर ही चिराग पासवान दोहराने की कोशिश की जा रही थी। क्या आरसीपी सिंह की इतनी बड़ी हैसियत है कि उन्हें खड़ा करके भाजपा नीतीश को कमजोर कर दे ? ललन सिंह यहां तक कह गए कि आरसीपी कैसे मंत्री बने वे ही बताएंगे। क्या बगैर नीतीश की सहमति के प्रधानमंत्री ने आरसीपी को मंत्रिमंडल में स्थान दे दिया?जाहिर है , यह या इस तरह के सारे तर्क केवल गठबंधन तोड़ने के फैसले को सही साबित करने के लिए है।
नीतीश द्वारा भाजपा से अलग होने का दूसरी बार किया गया फैसला उनकी राजनीतिक समझ पर तो प्रश्नचिन्ह खड़ा करता ही है उनके निजी व्यक्तित्व के भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता महसूस कराता है। भाजपा चुनाव में साथ रहते हुए चिराग को नीतीश के विरुद्ध खड़ा करने का कदम नहीं उठा सकती। अपने गठबंधन को कम सीटें आने का मतलब था सरकार बनाने के अवसर से वंचित हो जाना। भाजपा ने नीतीश की भावना को महत्व देते हुए ही चिराग की जगह पशुपति कुमार पारस के गुट को राजग का भाग बनाया। जदयू इसकी चर्चा नहीं कर रहा।
नीतीश ने तेजस्वी यादव के साथ पत्रकारों से बातचीत में कहा कि समाज में विवाद पैदा करने की जो कोशिश हो रही थी वह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। उनके अनुसार भाजपा से संबंध तोड़ने की मुख्य वजह यही है। यानी सेक्यूलरवाद की रक्षा के लिए हमने भाजपा से संबंध तोड़ा है। पीछे लौटें तो जून, 2010 से नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के विरुद्ध उत्तेजक बयान देना आरंभ किया। पटना में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उपस्थित नेताओं को खाने का निमंत्रण देकर भी रद्द कर दिया। उसके बाद 2013 में उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़ते हुए यही कहा कि जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बना दिया गया तो कोई विकल्प नहीं बचा था। इस तरह उन्होंने स्वयं को सेक्यूलर खेमे का सबसे बड़ा हीरो बनाकर पेश किया। स्वयं को सेक्यूलर लिबरल मानने वाले कुछ नेताओं, पत्रकारों, एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों ने उन्हें प्रधानमंत्री मैटेरियल का कहना शुरू किया और उन्हें समझाया कि मोदी के विरुद्ध आक्रामक लाइन लिया तो विपक्ष के सबसे बड़े चेहरा हो जाएंगे। निश्चित रूप से अभी भी कुछ ऐसा हुआ है । यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि नीतीश के अंतर्मन में मोदी के समानांतर तथाकथित सेक्यूलर खेमे का राष्ट्रीय चेहरा बनने की छटपटाहट बनी हुई है। उनके प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा ने ट्वीट में कहा भी है कि देश आपका इंतजार कर रहा है। हालांकि तब विपक्षी दलों ने उन्हें अपनाया नहीं और 2014 के लोकसभा चुनाव में जद यू 2 सीटों तक सिमट गई। इसी कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर जीतन राम मांझी को बागडोर सौंपना पड़ा था। इस हादसे के बावजूद ऐसा करने का क्या कारण हो सकता है? जो व्यक्ति स्वयं को जो है उससे कई गुना बड़ा व्यक्तित्व मानने की ग्रंथि पाल लेता है तथा जिसे लगता है कि उसके विचार और व्यवहार अन्यों से श्रेष्ठ हैं वह हमेशा अहं और असुरक्षा बोध से ग्रस्त रहता है तथा उसका व्यवहार दोलायमान होता है। नीतीश के संदर्भ में यही सच है।
जरा बिहार की दृष्टि से सोचिए। आज तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद एक बड़ी शक्ति है। किंतु लोगों ने 15 वर्ष के कुशासन से मुक्ति के लिए मतों के माध्यम से क्रांति की थी। नीतीश के नेतृत्व में राजद लगातार पांच चुनाव में पराजित हुई। लालू यादव सहित उनके परिवार के सारे सदस्य पराजित हो गए थे। 2020 में जद यू को कम सीटें आई तो उन्हें विचार करना चाहिए था कि जनता उन्हें क्यों पहले की तरह पसंद नहीं कर रही? बोचहा विधानसभा उपचुनाव में बड़े तबके ने मुख्यतः नीतीश की शैली और उनका अनुसरण करने वाले भाजपा नेताओं के विरुद्ध विद्रोह करके भाजपा व राजग उम्मीदवार को पराजित किया था। इसका संकेत उन्हें समझना चाहिए था। नीतीश और जदयू के नेता इस कटु यथार्थ को मानने को तैयार नहीं कि लोगों का उनसे मोहभंग होना काफी पहले से आरंभ हो चुका है। आज तेजस्वी के नेतृत्व में राजद का जनाधार नीतीश से ज्यादा है। जेहादी आतंकवादी तत्वों के विस्तार की आवाज उठाना समाज को बांटना नहीं होता। विश्व का कुख्यात आतंकवादी भटकल बिहार से पकड़ा गया, ,पीएफआई के बड़े मॉड्यूल का पर्दाफाश हुआ और वे मानने को तैयार नहीं कि बिहार जिहादी आतंकवादियों के रडार पर है। क्या बिहार की जनता इस खतरे को नहीं समझती? उसे पता है कि ऐसे खतरे से मुक्ति दिलाने की सोच नीतीश या राजद में नहीं है। देश का माहौल ऐसा है जिसमें यह बड़ा मुद्दा बन चुका है। नीतीश और उनके पाला बदल से उत्साहित लोग इसे समझें तो पता चलेगा कि बिहार और देश की राजनीति की दिशा क्या होगी।