वर्ल्डसंपादकीय

पाकिस्तान : जब नई सरकार आने के पहले ही भारत विरोधी अलाप शुरू, तो आगे क्या?

अवधेश कुमार

पाकिस्तान में पीएमएलएन के नेता शाहबाज शरीफ 34 वें प्रधानमंत्री बन चुके हैं। उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद साफ हो गया था कि इमरान खान को प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ेगा। स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली का तकाजा था कि इमरान खान विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते। संसद में विपक्ष के आरोपों का जवाब देते तो संसदीय प्रणाली की अच्छी परंपरा शुरु होती। इसके विपरीत उन्होंने संसद की जगह टेलीविजन को जवाब देने का हथियार बनाया था। जिस ढंग से नेशनल असेंबली में विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ वह लोकतंत्र की दृष्टि से हास्यास्पद था। सत्ता पक्ष का कोई एक व्यक्ति सदन में नहीं। नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने कह दिया कि इमरान खान से उनकी 30 साल की दोस्ती है ,इसलिए वे अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग नहीं कराएंगे। डिप्टी स्पीकर कासिम खान सूरी पहले ही अविश्वसनीय हो चुके थे। उच्चतम न्यायालय की टेढी नजर देखते हुए दोनों को इस्तीफा देना पड़ा। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में अध्यक्ष सत्तारूढ़ पार्टी का होता है और उसके संबंध नेताओं से होते ही हैं। अध्यक्ष चुनने के बाद वह अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करता है न की पार्टी की वफादारी और दोस्ती निभाता है। किंतु पाकिस्तान का लोकतंत्र इसी तरह चलता है। आप देखिए डिप्टी स्पीकर कासिम खान सूरी ने विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कारण बताया कि यह विदेश की साजिश है। राष्ट्रपति ने इमरान खान की सलाह मानकर नेशनल असेंबली भंग कर दिया था। उच्चतम न्यायालय 48 घंटे के अंदर अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग कराने का आदेश न देता तो वहां चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो सकती थी।

हालांकि पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय पर सेना, राजनीतिक सत्ता और मजहबी तत्वों का प्रभाव रहा है। इस बार या तो उस पर दबाव नहीं आया या फिर किसी अन्य कारण से उसने ऐसा फैसला किया। पाकिस्तान के लिए यह सामान्य स्थिति नहीं थी कि उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश की अवहेलना होती देख रात में ही सुनवाई के लिए न्यायालय खोल दिया था। राजनीतिक तनाव को देखते हुए केवल सुप्रीम कोर्ट ही नहीं इस्लामाबाद हाईकोर्ट भी खोला गया था ताकि कोई याचिका आए तो उसकी तत्क्षण सुनवाई की जा सके। अविश्वास प्रस्ताव पर ऐसे परिदृश्यों की कल्पना शायद ही किसी स्वस्थ लोकतंत्र में की जा सकती है। पूरे देश में टकराव जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। लेकिन जिस तरह चारों और सुरक्षा व्यवस्था थी वह भी हैरत में डाल डाल रही थी। इस्लामाबाद के सभी रास्ते बंद कर दिए गए। हवाई अड्डों की भी सुरक्षा बढ़ा दी गई। अस्पतालों को हाई अलर्ट पर रख दिया गया। पुलिसकर्मियों की छुट्टियां रद्द कर दी गई। पुलिस अधिकारियों को इस्लामाबाद में ही रहने का आदेश दिया गया। जब इमरान सरकार का जाना निश्चित था तो ये सारी व्यवस्थायें कि किसने? सामान्यतः ऐसी स्थिति में उच्चाधिकारियों की भूमिका बढ़ जाती है। लेकिन इतना सब कुछ यूं ही नहीं हो सकता। आने वाले समय में इन सबका खुलासा होगा। ऐसा लगता है कि इमरान ने पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान में अपने विरोधियों की संख्या ज्यादा ही बढ़ा लिया था।

तत्काल विपक्ष की एकता से सरकार भले बन जाए लेकिन इसे पाकिस्तान के राजनीतिक संकट के टल जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। पीएमएल क्यू और एमक्यूएम जैसी पार्टियां सेना के प्रभाव में रही हैं। उन्होंने सेना के प्रभाव में ही 2018 में इमरान खान सरकार के गठबंधन में शामिल होना स्वीकार किया था। आगे भी वे किसी दिशा में जा सकते हैं। बिलावल भुट्टो जरदारी की पीपीपी और नवाज शरीफ की पीएमएलएन के बीच दोस्ती स्वाभाविक नहीं। इसलिए वह कितने दिन साथ रहेंगे कहना मुश्किल है। इमरान आए तो सत्ता में सेना और कट्टरपंथियों के समर्थन से लेकिन अपने को बाहर स्वतंत्र दिखाने की बेवकूफी में उन्होंने सेनाध्यक्ष को नाराज कर दिया। सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा के सेवा विस्तार के बारे में कह दिया कि अभी उस पर विचार नहीं किया। आई एस आई प्रमुख की नियुक्ति में भी उन्होंने सेना की अनुशंसा को स्वीकार करने में देर कर दी। देश की आर्थिक हालत खराब हो ही रही थी। अमेरिका ही नहीं एक समय के मित्र इस्लामी देशों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की

नाराजगी के कारण इमरान की स्थिति खराब हो रही थी। विपक्ष के नेताओं के विरुद्ध कानून एजेंसियों ने जैसी बेरहमी की उससे उनके बीच एकजुटता पैदा हो गई। ऐसा लगता है कि परिवर्तन कराने में सेना ने प्रत्यक्ष न सही परोक्ष भूमिका अवश्य निभाई है। इमरान खान के इस्तीफा के पहले कमर जावेद बाजवा ने उनसे मुलाकात की। उसके पहले पाकिस्तानी मीडिया के एक समूह में खबर चल गई कि इमरान बाजवा को बर्खास्त करने वाले हैं। इमरान ने इसका खंडन करते हुए कहा कि वे सेना के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते। बाजवा की मुलाकात का अर्थ यही लगाया जा रहा है कि उन्होंने उन्हें इस्तीफा देने के लिए कहा होगा। इसमें आगे होगा क्या इसके बारे में निश्चित आकलन नहीं किया जा सकता। यह पाकिस्तान है जहां कब क्या हो जाए कहना कठिन है। अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा वहां की राजनीति में भी महसूस की जा सकती है।

शहबाज शरीफ पंजाब के मुख्यमंत्री रहे हैं और प्रशासन का उन्हें अनुभव है। किंतु उनकी सरकार भी पीपीपी और अन्य दलों के समर्थन पर टिकी होगी। इनके अंदर इमरान के विरुद्ध इतना गुस्सा है कि वे प्रतिशोध में विरोधी नेताओं के दमन की पाकिस्तानी परंपरा को आगे बढ़ा सकते हैं। आज पाकिस्तान का कोई पूर्व प्रधानमंत्री अपने देश में नहीं है। या तो वे विदेशों में निर्वासित जीवन जी रहे हैं या मार दिए गए। इमरान ने अंतिम समय में यही समझौता करने की कोशिश की कि उनके और मंत्रिमंडल के उनके साथियों के विरुद्ध मुकदमा न किया जाए। उन्होंने कहा भी कि उन्हें जेल में डाला जा सकता है। ऐसा हो सकता है। इमरान के शासनकाल में पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ जेल में डाले गए। एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने पिछले दिनों खुलासा किया कि उनके विरुद्ध बिल्कुल गलत फैसला दिया गया। परवेज मुशर्रफ लंबे समय से निर्वासित जीवन जी रहे हैं। आम धारणा यही है कि उनके विरुद्ध न भ्रष्टाचार का कोई आरोप साबित होने वाला है न अपराध का। उन पर मुख्यतः संविधान के गला घोंटने का आरोप है और वह भी आपातकाल लगाने के कारण। वे न्यायालय का सामना करना चाहते थे लेकिन परिस्थितियां ऐसी बना दी गई कि उनके पास देश छोड़कर जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। उनके कार्यकाल के प्रधानमंत्री सब बाहर है। नवाज शरीफ के शासनकाल में ही बेनजीर भुट्टो को लंदन में निर्वासित जीवन जीना पड़ा और उनके पति आसिफ अली जरदारी तथा अनेक अन्य नेता जेल में बंद रहे। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी तब पीपीपी नेता के रूप में जेल में रहे। हालांकि इस समय वहां का न्यायालय जितना एक्टिव है उसमें पहली नजर में कोई उम्मीद कर सकता है कि अगर सरकार ने इमरान और उनके साथियों के विरुद्ध गलत तरिके से कानूनी कार्रवाई की तो न्यायपालिका से उन्हें न्याय मिल सकता है। किंतु न्यायपालिका की भूमिका ही वहां संदिग्ध रही है। विपक्ष ने भ्रष्टाचार का आरोप सरकार पर लगाया है तो और उसकी जांच के लिए कदम उठाए जाएंगे और संभव है मुकदमे दर्ज हो। अगर इमरान खान गिरफ्तार नहीं होते और संसद में विपक्ष के नेता के रूप में उपस्थित रहते हैं तो पाकिस्तान की राजनीति में नई शुरुआत हो सकती है क्योंकि किसी पूर्व प्रधानमंत्री ने वहां विपक्ष के नेता की भूमिका नहीं निभाई है। तो देखना होगा कि वहां की अगली तस्वीर कैसी बनती है।

भारत के लिए घटनाओं पर नजर रखने और भविष्य की दृष्टि से चौकस रहने का ही एकमात्र विकल्प है। शाहबाज शरीफ ने प्रधानमंत्री बनने के पहले ही कह दिया कि कश्मीर मसला जब तक नहीं सुलझता तब तक भारत से बातचीत नहीं होगी। ऐसा लगता है जैसे भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की दरख्वास्त की हो। इमरान खान ने अंतिम समय में भारत की विदेश नीति की काफी प्रशंसा की तो मरियम नवाज ने कहा कि उन्हें भारत में ही बस जाना चाहिए। जब नई सरकार आने के पहले ही भारत विरोधी अलाप शुरू हो गया है तो आगे क्या करेंगे। इमरान हो या शाहबाज या अन्य कोई भारत की अनुकूलता की दृष्टि से तत्काल मौलिक अंतर आने की संभावना नहीं दिखती ।

India Edge News Desk

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