लोकतंत्र का सबसे बढ़िया स्वरूप है पंचायती शासन प्रणाली

अमित शुक्ला

पंचायती राज व्यवस्था, ग्रामीण भारत की स्थानीय स्वशासन प्रणाली है। इसे आधुनिक रूप-रंग प्रदान करने में ब्रिटिश अधिकारी लॉर्ड रिपन की बड़ी भूमिका बतायी जाती है लेकिन इस प्रणाली का विकास भारत के विकास के साथ जुड़ा हुआ है। मुस्लिम काल को छोड़, हर युग में शासन की यह प्रणाली यहां जीवंत रही है। हालांकि सल्तन काल से लेकर ब्रिटिश काल तक स्थानीय स्वशासन पर तीक्ष्ण प्रहार हुए लेकिन जब-जब केन्द्रीय शासन को भारत की प्रशासनिक जटिलता का आभास हुआ तब-तब सत्ता ने स्थानीय शासन को महत्व दिया। अंग्रेजों ने अपने समय में इस प्रणाली को केन्द्रीय सत्ता का गुलाम बना दिया, जबकि भारत में स्वदेशी राजाओं ने इस संस्था को कई अधिकार प्रदान कर रखे थे।

अथर्ववेद में राष्ट्र की व्याख्या की गयी है। जैन ग्रंथों में लोकतंत्र शब्द का पहली बार उल्लेख मिलता है। उसी प्रकार भारत में स्थानीय स्वराज्य की अवधारणा प्राचीन काल से चली आ रही है। इतिहासकारों की मानें तो वैदिक काल में स्थानीय स्वशासन, वर्तमान की भांति नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजित थी। वैदिक साहित्यों में सभा एवं समितियों का वर्णन मिलता है, जो प्रजा की भलाई के लिए राजा को सलाह देती थी। जिससे केन्द्रीय शासन पर नियंत्रण संभव हो पाता था। रामायण व महाभारत काल के साहित्य में भी सभा, समिति तथा गांवों का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में दो प्रकार के गांवों का वर्णन है। एक घोश व दूसरा ग्राम। मनुस्मृति के अनुसार गांव का अधिकारी ग्रामिक कहलाता था। उसका कार्य कर संचित करना होता था। बता दें, यहां कर संचित करने की बात कही गयी है, वसूलने की चर्चा नहीं है। दस गांव के अधिकारी दशिक, 20 के विधाधिप, 100 के सतपाल और एक हजार के अधिकारी सहस्रपति कहलाते थे।

मौर्य काल के प्रमाणिक साहित्य, विदेशी यात्री, मेगस्थनीज के लेखों में भी ग्राम स्वराज की चर्चा है। उसी प्रकार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्थानीय शासन पर काफी विस्तार से चर्चा की गयी है। गुप्त काल में नगर के अधिकारी को नगरपति एवं ग्राम के अधिकारी को ग्रामिक कहा जाता था। राजपूत कालीन युग में भी प्रशासन की मूल इकाई ग्राम ही थी जिसका शासन प्रबंधन सभा एवं समितियों द्वारा होता था। नगरीय शासन प्रबंध पहनाधिकारी द्वारा होता था। सल्तनत काल में शासन का स्वरूप भारतीय नहीं रहा। चंूकि ये विदेशी आक्रांता थे इसलिए उन्होंने अपने तरीेके से शासन को संचालित करने की कोशिश की। ग्राम एवं नगर के स्वशासन के स्थान पर राजा के द्वारा नियुक्त सैन्य अधिकारी प्रशासन की जिम्मेदारी संभालने लगे। मुगल कालीन भारत में थोड़ा स्वशासनिक व्यवस्था का जिक्र मिलता है। आईन-ए-अकबरी में नगर प्रशासन की जिम्मेदारी के लिए नगर कोतवाल की नियुक्ति होती थी। कोतवाल मुस्लिम धार्मिक नेताओं से राय जरूर लेता था लेकिन वह राजा के प्रति उत्तरदायी होता था न कि प्रजा के प्रति।

आधुनिक भारत की यदि बात की जाय तो वर्ष 1882 में ब्रिटिश अधिकारी लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन सम्बंधी प्रस्ताव दिया। 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रान्तों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों की सूची में रखा गया। स्वतंत्रता के पश्चात, वर्ष 1957 में योजना आयोग (अब नीति आयोग) द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (वर्ष 1953) के अध्ययन के लिये ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था-ग्राम, मध्यवर्ती एवं जिला स्तर, लागू करने का सुझाव दिया। वर्ष 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की तथा 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा देश की पहली त्रिस्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया गया।

वर्ष 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक अधिकार प्रदान किया गया। यह भारत में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने के दिशा में एक बड़ा कदम था। स्थानीय स्वशासन की दृष्टि से इस संशोधन अधिनियम के द्वारा पंचायतों के गठन को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। इस संशोधन अधिनियम के द्वारा संविधान में एक नवीन भाग, भाग 9 जोड़ा गया है, जो पंचायतों के विषय में है। इस भाग में अनुच्छेद 243 तथा अनुच्छेद 243 ‘‘क’’ से 243 ‘‘ण’’ तक नवीन अनुच्छेदों को जोड़ा गया है।

इतना करने के बाद भी पंचायती राज व्यवस्था को संविधान सम्मत अधिकार आज भी प्राप्त नहीं हो पाया है। इसके लिए दोषी कौन है? यह सवाल हर लोकतंत्र समर्थकों के मन में उत्पन्न होता है। पंचायती राज संस्थाओं को अधिकार प्राप्त नहीं होने के पीछे कही न कहीं केन्द्रीय शासन में आत्मबल की कमी परिलक्षित होती है। पंचायती संस्थाओं को संविधान सम्मत अधिकार जो प्राप्त हैं उसका हस्तांतरण नहीं हो पाया है। केन्द्र या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी या कर्मचारी ही चयनित प्रतिनिधियों की शक्ति का प्रयोग करते हैं। दूसरी ओर इस मामले में पंचायती राज संस्थाओं के चयनित प्रतिनिधि भी कम दोषी नहीं हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों ने इन प्रतिनिधियों के सामने विकट समस्या पैदा कर दी है। यदि पंचायती संस्थाओं के प्रतिनिधि मजबूती से खड़े हो जाएं तो उन्हें उनका हक देने में कोई कोताही नहीं कर सकता है। इसके कई उदाहरण हैं लेकिन पंचायती राज संस्थाएं घुर भ्रष्टाचार का शिकार है।

पंचायती राज शासन प्रणाली लोकतंत्र की प्रत्यक्ष शासन प्रणाली का ही एक रूप है। इसके अंतर्गत ग्राम सभा के सभी बालिग ग्रामीण सदस्य होते हैं। सारे प्रस्तावों को ग्राम सभा से पारित करना होता है लेकिन प्रशिक्षण एवं प्रचार के अभाव में ग्राम सभा की ताकत का प्रचार नहीं हो पाया है, जिसका फायदा शासन के द्वारा नियुक्त अधिकारी व कर्मचारी उठाते हैं। ग्राम सभा की आठ उप समितियां होती है। ग्राम विकास समिति, सार्वजनिक संपदा समिति, कृषि समिति, स्वास्थ्य समिति, ग्राम सुरक्षा समिति, आधारभूत संरचना समिति, शिक्षा व सामाजिक न्याय समिति तथा निगरानी समिति। इन समितियों के आधार पर ग्राम स्वराज्य को संचालित करने की व्यवस्था है लेकिन पंचायतों में इन समितियों का कोई महत्व ही नहीं होता है।

लोकतंत्र का अर्थ होता है शासन व सत्ता का विकेन्द्रीकरण। पंचायती शासन प्रणाली उसका सबसे बढ़िया स्वरूप है। यदि देश के लोकतंत्र को मजबूत करना है और शासन में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करनी है तो पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाना ही होगा। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो भारत में लोकतंत्र का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा। साथ इसके कारण लोकतंत्र के खिलाफ काम करने वाले चिंतन का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा, जो देश और समाज दोनों के घातक साबित होगा।

India Edge News Desk

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