लंबे समय मामला लटकाए जाने के कारण लोगों का आक्रोश बढ़ा
अवधेश कुमार
ज्ञानवापी मस्जिद विवाद हो या कृष्ण जन्मभूमि ईदगाह मस्जिद या कुतुबमीनार सूर्य स्तंभ- विष्णु स्तंभ इन पर आम सहमति बनाना कठिन है। बातचीत और आम सहमति से ऐसे धार्मिक स्थलों के विवाद सुलझ जाएं इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता, किंतु परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं जिनमें इसकी कल्पना भी की जाए। अयोध्या मामले में कोशिशें हुईं लेकिन अंततः न्यायालय के फैसले से ही समाधान हो सका। वस्तुतः लंबे समय मामला लटकाए जाने के कारण लोगों का आक्रोश बढ़ा और वो न्यायालय से लेकर अन्य स्तरों पर इसके लिए आवाज उठाने लगे। अब चूंकि उच्चतम न्यायालय ने ज्ञानवापी मामले में हस्तक्षेप किया है, इसलिए मानकर चलना चाहिए कि आने वाले समय में इसका कानूनी निपटारा हो जाएगा। उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने मुख्यतः तीन आदेश दिए हैं। पहला, मामले को वाराणसी के सिविल न्यायाधीश, सीनियर डिवीजन से जिला न्यायाधीश को स्थानांतरित किया है। न्यायमूर्ति धनंजय चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति टी एस नरसिम्हा कि पीठ ने कहा कि बेहतर होगा कि एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी इसे देखें क्योंकि मामला जटिल और संवेदनशील है। इसका यह अर्थ नहीं है कि न्यायालय ने दीवानी न्यायाधीश पर कोई टिप्पणी की है। कहा है कि वे दीवानी न्यायाधीश पर कोई आरोप नहीं लगा रहे हैं न उनकी क्षमता पर प्रश्न उठा रहे हैं। हमारे देश में हर कोई फैसले का अपने अनुसार अर्थ लगाने लगता है। वास्तव में इससे मुकदमे की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है।इससे मां श्रृंगार गौरी की प्रतिदिन पूजा अर्चना की मांग करने वालों या फिर ज्ञानवापी को पूर्व काशी विश्वनाथ मंदिर मानने वालों को किसी तरह धक्का नहीं लगा है। मस्जिद के पक्ष में आवाज उठाने वाले कह रहे थे कि पूजा स्थल विशेष प्रावधान कानून, 1991 के अनुसार 15 अगस्त, 1947 तक किसी भी स्थान की जो स्थिति थी उसमें अयोध्या को छोड़कर बदलाव नहीं हो सकता। इस आधार पर वे दीवानी न्यायालय में सुनवाई और सर्वे आदेश को भी गलत और कानून विरोधी बता रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि पूजा स्थल कानून, 1991 किसी धार्मिक स्थल के धार्मिक स्वरूप का पता लगाने पर रोक नहीं लगाता। मस्जिद कमेटी के वकील ने सिविल न्यायाधीश द्वारा सर्वे के लिए एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त करने तथा 16 मई को शिवलिंग के दावे वाले स्थान को सील करने के आदेश को इस कानून का उल्लंघन बताया। इस पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर धार्मिक स्थल की हाइब्रिड स्थिति हो यानी दो धर्मों के लोगों का दावा है और उनके अवशेष मिल रहे हों तो उसका पता लगाने में यह कानून आड़े नहीं आता है।
इनकी कोई जो भी व्याख्या करे, तत्काल यह ज्ञानवापी को मंदिर मानने वालों के अनुकूल है। विरोधी अपने पक्ष में सबसे बड़ा आधार इसे ही बता रहे थे। ध्यान रखिए कि श्री कृष्ण जन्मस्थान से शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने के लिए दायर हुई याचिका को स्वीकार करते हुए मथुरा के जिला न्यायाधीश ने भी टिप्पणी में लिखा है कि वादी ने शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी और श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के बीच 1968 में हुए समझौते को रद्द करने की मांग की है जबकि उपासना स्थल कानून 1991 में बना है ,इसलिए समझौता रद्द करने की मांग पर यह लागू नहीं होता है। हमें अपनी ओर से इस कानून की व्याख्या करने की बजाय न्यायालय के ही अंतिम मत की प्रतीक्षा करनी चाहिए जहां इस पर याचिका लंबित है। यहां इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि ज्ञानवापी मस्जिद या मंदिर में से क्या होगा, श्री कृष्ण जन्मस्थान ईदगाह मस्जिद को माना जाएगा या नहीं या फिर कुतुबमीनार सूर्य स्तंभ या विष्णु स्तंभ माना जाये या नहीं आदि सुनिश्चित करने में पूजा स्थल कानून, 1991 बाधा नहीं है। तो इसे यहीं छोड़ कर आगे बढें। ध्यान रखिए ,सर्वे के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी खारिज कर दिया था।
उच्चतम न्यायालय का दूसरा आदेश नमाज को बाधित नहीं करने तथा वजू की उचित व्यवस्था से संबंधित है। सिविल जज ने उस स्थान को सील करने का आदेश दिया था और 17 मई को उच्चतम न्यायालय ने उसे जारी रखा था। नमाज के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश देते हुए भी उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि शिवलिंग के दावे वाली जगह की सुरक्षा सुनिश्चित हो। पीठ ने जिला प्रशासन से कहा है कि अगर मस्जिद में वजू का उचित इंतजाम न हो तो वह पक्षकारों से विचार-विमर्श करके वजू का उचित इंतजाम कराए। यानी वजू का इंतजाम भी दोनों पक्षों की सहमति से करना है। सील होने के बाद वाले शुक्रवार को वहां नमाज हुआ ,जिसमें भारी संख्या में लोग उपस्थित थे और किसी ने नहीं कहा कि वजू की व्यवस्था नहीं है। इसलिए यह अध्याय तत्काल बंद हो जाना चाहिए। हालांकि उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद मस्जिद पक्ष द्वारा सिविल प्रोसीजर कोड के तहत दायर अर्जी पर प्राथमिकता के आधार पर जिला न्यायाधीश सुनवाई करेगा। यह उसका तीसरा आदेश है । अंजुमन इंतजामियां मस्जिद ने पूजा स्थल कानून, 1991 का हवाला देते हुए मुकदमा खारिज करने की मांग की है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के संदर्भ में तात्कालिक व्याख्या दी है, बावजूद उसने जिला न्यायाधीश को सुनवाई रोकने का आदेश नहीं दिया । यहां भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि जिला न्यायाधीश का फैसला आने के बाद 8 हफ्ते तक उच्चतम न्यायालय का अंतरिम आदेश लागू रहेगा। यानी जो भी फैसला होगा उससे वहां की वर्तमान स्थिति में अंतर नहीं आएगा। शिवलिंग के दावे का स्थान सुरक्षित रहेगा, वजू के लिए दूसरी व्यवस्था रहेगी। किंतु जब उच्चतम न्यायालय ही इसको सुनवाई या धार्मिक स्वरूप के निर्धारण के रास्ते की बाधा नहीं मान रहा तो जिला न्यायाधीश अलग फैसला कैसे दे सकते हैं?
सर्वे में वजूखाने के अंदर मिली आकृति शिवलिंग की तरह दिखता है। विरोधी पक्ष का दावा है कि वह फव्वारा है। इसका निश्चय भी विशेषज्ञों द्वारा होगा और बगैर न्यायालय के आदेश के इसकी जांच नहीं हो सकती। जहां तक पुरातत्व विभाग द्वारा सर्वेक्षण का मामला है तो ज्ञानवापी में निचले न्यायालय ने इसका आदेश दिया था जिस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी। चूंकि उस पर अभी बहस चल रही है ,इसलिए उच्च न्यायालय ने रोक की अवधि 21 जुलाई तक बढ़ाई है। यानी वह पूरी होने के बाद फैसला होगा कि वहां पुरातत्व विभाग से सर्वेक्षण कराया जाए या नहीं। अगर उस स्थान के धार्मिक स्वरूप का निर्धारण होना है तो पुरातत्व विभाग का सर्वेक्षण चाहिए। यह मामला 1991 में दायर हुआ था। वाराणसी की जिला अदालत में अपील की गई थी कि वाराणसी में जहां ज्ञानवापी मस्जिद है वहां प्राचीन मंदिर बहाल करने की अनुमति दी जाए। यह विचार उचित नहीं लगता कि उच्चतम न्यायालय के आने के बाद उच्च न्यायालय सुनवाई नहीं करेगा। उच्चतम न्यायालय का आदेश दूसरी याचिका पर है जिसका इससे लेना -देना नहीं है। दूसरी ओर कमिश्नर की सर्वे रिपोर्ट आ गई है जिसके बारे में अभी तक जितनी जानकारी है उसके अनुसार सारे प्रमाण मंदिर होने के बताए गए हैं। सर्वे रिपोर्ट लीक करने के आरोप के बाद यद्यपि पहले एडवोकेट सर्वे कमिश्नर अजय मिश्रा हटा दिए गए फिर भी उन्होंने अपनी रिपोर्ट दे दी है । दोनों में काफी समानता है।
तो सभी मामलों का दारोमदार न्यायालयों के फैसलों पर टिका है। जब उच्चतम न्यायालय स्वयं धार्मिक स्वरूप के निर्धारण जैसा शब्द इस्तेमाल कर रहा है तो कम से कम ज्ञानवापी मामले का श्रृंगार गौरी पूजन से आगे अंतिम निर्धारण तक जाना निश्चित हो गया। मां श्रृंगार गौरी की नियमित पूजा अर्चना के साथ संपूर्ण ज्ञानवापी की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वालों को न्यायालयों के आदेशों की मनमानी व्याख्या से विचलित होने की जगह धैर्य रखना चाहिए क्योंकि अब पूरा मामला वहां पहुंच गया है जहां नीचे से शीर्ष तक के न्यायालयों द्वारा फैसला आना निश्चित है। और न्यायालय साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला देगा जैसा अयोध्या मामले में हुआ।