वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चौथे स्तम्भ की भूमिका

चेतन चौहान
विश्व में चौथे स्तम्भ के रूप में जाना जाने वाला प्रेस वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिका से समाज व राष्ट्र को नई दिशा देने में कितना कामयाब हुआ हैं, इसकी व्याख्या तो सचमुच करोड़ों पाठक ही करते आए हैं? यह गत शताब्दी से एक बहस का मुद्दा है। पत्रकारिता अथवा प्रेस सामाजिक चेतना के लिए है जिससे जन चेतना को सामूहिक चेतना के माध्यम से मानवता की भलाई व राष्ट्र के विकास हेतु प्रयोग में लाया जाये। आज इतिहास ने अपनी कलम के जादू से वो कर दिखाया है जो शायद राजनीति के पुरोधा भी नहीं कर सके। वर्तमान भारतीय परिदृश्य में प्रेस का जिस तरह से प्रसार व चेहरा-मोहरा परिलक्षित हो रहा है, वो महज एक दिन की संरचना नहीं है बल्कि इसके पीछे संघर्षों से भरा एक लंबा इतिहास हैं।
हमारे देश में प्रेस की भूमिका व इससे जुड़े लोगों ने जिस तरह से अपनी भूमिका का निर्वाह किया है, वह निश्चित तौर पर समूची दुनिया में अनुकरणीय उदाहरण है। आजादी की लड़ाई के लिए यदि प्रेस इतना ईमानदार और मिशन के तौर पर अपनी महत्ती भूमिका न निभाती तो शायद भारत को आजादी के लिए थोड़ा और इंतजार करना पड़ता। आम जनता को जागृत करने के लिए प्रेस की जो अहमियत है उसे स्वीकारना वक्त का तकाजा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि पूरी दुनियाँ में प्रेस की धार ने विश्व के नक्शे को बदला है तो कई सत्तासीन राजनीतिज्ञों को तख्तापलट का आईना भी दिखाया है।
बहरहाल प्रेस की आजादी और इससे जुड़े सामाजिक सरोकारों की रक्षा के लिए समूचे विश्व में आवाज उठती रही है जो आज भी जारी है। चैथी शक्ति ने देश के हितार्थ कई बार ऐसे उदाहरण पेश कर लोकतंत्रा को जिंदा रखा हैं। समूची दुनिया में कई एक से बढ़कर एक कांड हुए जिसे बेपर्दा करने में प्रेस की सशक्त भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। भारतीय संदर्भ में देखें तो यह स्पष्ट है कि यहा पर वर्तमान में राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता संघर्ष का जो खेल खेला जा रहा है, उसका पर्दाफाश मीडिया ही कर सकता है। संसद में आज तक घटी घटनाएँ व आये दिनों होने वाले घोटालों का जिक्र करें तो उसके पीछे प्रेस की पैनी धार ही हैं।
इस दशक में भारतीय प्रेस ने जिस भूमिका का निर्वाह किया, वह एक सजग प्रहरी की भूमिका से कम नही आंकी जा सकती है। समूचे विश्व में जिस निर्भयता के साथ दबंग हो कर प्रेस कार्य कर रहा हैं, यह बात स्वार्थ में डूबे राजनीतिज्ञों के गले भले ही आसानी से न उतर पाये पर यह कटु सत्य है।
आजादी के 75 वर्ष बाद प्रेस का रंग-रूप बदलता गया, साथ ही सुविधाओं में भी इजाफा हुआ बल्कि प्रेस एक उद्योग के रूप में पनपता जा रहा है। इसे देखकर लगता है कि अब पाठकों की प्राथमिकता भी यही है। बदलाव की इस प्रक्रिया में छोटे व मझोले अखबारों में होड़ सी लग गयी है। इन सबके बावजूद पत्राकारिता वही सही है जो देशवासियों के हित से बंधी रहे। पूरे विश्व का सूचना बाजार गर्म है। शायद इसीलिए भूमंडलीकरण के चलते मीडिया का चरित्रा व स्वरूप भी बदलता नजर आ रहा है। गत दो दशकों में सोशल मीडिया और इंटरनेट के विस्तार ने सम्पूर्ण परिदृश्य बदल कर रख दिया है। समाचारों की दुनियाँ का तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन फेक न्यूज का सिलसिला ऐसा चल निकला है कि समाज में उथल-पुथल मचाने हेतु ये काफी हैं। इससे लोकतंत्रा के बुनियादी मूल्यों के समक्ष खतरा मंडराने लगा है। प्रश्न यह उठता है कि फेक न्यूज को सही खबर से कैसे पृथक किया जाये ? तो पीत पत्राकारिता का दौर भी तेजी से पनपा है। भग्न मूल्यों के दौर में प्रेस से जुड़े पत्राकारों की साख भी दांव पर लगी हुई है।
वर्तमान दौर में बात इतनी सी है कि प्रेस की भूमिका मानवता की भलाई हेतु कैसे आगे आए व जन चेतना को सामूहिक सहयोग से कैसे जोड़ा जाय, जिससे प्रेस की विश्वसनीयता पर उंगली न उठे। आज संपादकों व प्रकाशकों का दायित्व बनता है कि वे जन मानस को प्रभावित करने के उद्देश्य का निर्धारण करें ताकि समाज व राष्ट्र की आधारशिला मजबूत हो। राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य भावना का बोध करा कर जन हर तरह से उन्नति की ओर अग्रसर हो। आज अनेकानेक विषयों के प्रकाशन से जुड़े प्रकाशक अपने-अपने काम में जुड़े हुए हैं। हर क्षेत्रा का अपना महत्व व मर्यादाएँ हैं।
बदलते माहौल में आज प्रेस उद्योग जनहित के बजाए अर्थहित में लग गया है। शायद स्थिति गड़बड़ा गयी है, तभी अच्छे सम्पादकों और प्रकाशकों में निराशा का भाव जागना स्वाभाविक है। आजादी के बाद संपादकों व प्रकाशकों के रुख बदल गए। वे या तो पार्टियों से बंध गए या ऊंचे पदों की आपाधापी में लग गए। प्रेस सरकारी विज्ञापन पाने लोकसभा व विधानसभा की सीटों एवं विदेश यात्रा के डेलीगेशन की चकाचैंध ने पत्राकारिता की अस्मिता को धूमिल कर दिया हैं। परिणामतः पत्राकारिता के क्षेत्रा में नैतिक मूल्यों का ह्रास और आदर्शवादिता का क्षय होता जा रहा है।
आज समकालीन हिन्दी पत्राकारिता को आत्मपरीक्षण करना चाहिए कि उसका मूल लक्ष्य देशहित ही है। गत दो दशकों में फैले इंटरनेट के जाल ने पूरा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है। सच से ज्यादा झूठी खबरों का प्रसार धड़ल्ले से हो रहा है। इसे देखते हुए यह लगता है कि इस बदलाव की प्रक्रिया को पाठक भी झेल रहे हैं। आज देश के समक्ष अनेकों समस्याएं व चुनौतियाँ हैं। इस प्रश्न ने लोकतंत्रा की चैथी शक्ति को अवश्य चैंकाया है और यही है- भारतीयता की पहचान। प्रेस की भूमिका के समक्ष यही सबसे मुखर प्रश्न बन कर उभरा है, जिसकी चिंता आज की अनिवार्यता बन गई है।