राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव : आकर्षक रहा तीसरे दिन का शुरुआती खंड

इंडिया एज न्यूज नेटवर्क
रायपुर : मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिला डिंडौरी से पहुंचे कलाकारों ने छत्तीसगढ़ की याद दिला दी। करमा नृत्य की प्रस्तुति ने सबका मन मोह लिया। कृषि कर्म प्रधान नृत्य करमा फसल कटाई और कृषि पर आधारित है। यह बैगा जनजाति का लोकप्रिय नृत्य है। मांदर की थाप पर ,सिर में रंगीन पगड़ी और मोरपंख से सुसज्जित, लाल व काला परिधान से उत्साह के साथ प्रस्तुति दिए। इनके नृत्य में छत्तीसगढ़ के करमा नृत्य की झलक साफ दिखाई देती है। महिलायें गहरी नीली साड़ी पहने और सिर में कलगी लगाए आदिवासी परम्परा की पहचान को सरंक्षित कर सामूहिक, सामजंस्य और एकता का संदेश देते हुए नृत्य किये। वाद्य यंत्रों में भी छत्तीसगढ़ की झलक मिली। निशान बाजा, मोहरी, मांदर, टीमटिमी बाजा का प्रयोग करते हुए कर्णप्रिय संगीत के साथ सुंदर प्रस्तुति थी।
आज राज्योस्तव के तृतीय दिवस के पहले कालखंड में देश की चारों दिशाओं से कला और जनजातीय संस्कृति की छटा बिखरी। पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश, देश के पश्चिमी राज्य गुजरात, उत्तर पूर्व में बसे असम, झारखंड, दक्षिण पूर्व में बसे राज्य आंध्रप्रदेश, दक्षिण पश्चिम में बसे गोवा राज्य की नृत्य शैली की शानदार प्रस्तुति हुई।
पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश के आदिवासी समाज द्वारा किये जाने वाले सैताम नृत्य का सुंदर प्रस्तुति की गयी है।महिलाएं लाल और हरा के सुंदर परिधान पहनकर नृत्य करती हुई खूबसूरत लग रही थी। धुन और ताल के साथ गजब का जुगलबंदी देखने को मिला। बांसुरी की मधुर धुन, नगाड़ा की थाप पर मंत्रमुग्ध कर देने वाली नृत्य शैली। यह मध्यप्रदेश में फसल कटाई और विभिन्न पर्वों के शुभ अवसर पर किया जाता है। ढोल, नगाड़ा, बांसुरी का अद्भुत सामन्जस्य से जो संगीत निकल रहा है वह दर्शकों को झूमने को मजबूर कर दिया। मध्यप्रदेश के सागर से है यह टीम पहुंची है।
गुजरात के राठवां नृत्य आकर्षक चटकदार रंग बिरंगी परिधानों से सुसज्जित होकर यहां की महिलाओं द्वारा किया जाता है। वे एक घुमक्कड़ जनजाति से सम्बद्ध रखते हैं। वेश-भूषा में कांच, दर्पण के टुकड़ों का उपयोग करते हैं। हाथी दांत की चूड़ियाँ, कलाई की शोभा बढ़ाते हैं। कृषि में जब समृद्धि आती है, तब खुशी से महिलाएं यह नृत्य करती हैं। विदित हो कि आदिवासियों की एक जनजाति है राठवां, जो मूल रूप से गुजरात के उदयपुर जिले में रहते हैं। इस जनजाति का एक खास लोक नृत्य है, जिसे ’राठवां नृत्य’ के नाम से जाना जाता है। कभी अपने क्षेत्र विशेष में सिमटा इनका यह डांस कुछ वर्षों से समूचे देश में विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए विशेष पहचान बना चुका है। एक बार इस लोकनृत्य को देखने वाला इस कला का मुरीद हो जाता है। यहाँ इनकी आकर्षक प्रस्तुति दी गयी।
तत्पश्चात कुनबी नृत्य की प्रस्तुति दी गयी। यह गोवा के बसने वाले कुनबी, मुख्य रूप से यहां के प्रांत में बसे एक आदिवासी समुदाय हैं, जो यहाँ की सबसे प्राचीन लोक परंपरा को सरंक्षित रखता है। कुनबी महिलाओं के नर्तकों के एक समूह द्वारा किया जाने वाला तेज और सुरुचिपूर्ण नृत्य, पारंपरिक लेकिन साधारण पोशाक पहने हुए, यह जातीय कला के रूप में एक सन्देश है। यह महिलाओं द्वारा किये जाने वाले सामुहिक नृत्य है।
अगले क्रम में बेहद सादगी और साधारण वेश भूषा के साथ अपनी जनजातीय परम्परा के अनुरूप झारखंड प्रदेश का हो नृत्य समृद्धि और उन्नति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुति दी। मांदर की थाप पर कदमताल मिलाते हुए शनै-शनै नृत्य ने लोगों का मोह लिया। संगीत के उतार चढ़ाव के साथ कलाकारों की सुंदर अभिव्यक्ति के साथ दर्शकों ने खूब प्यार दिया।
शिव भूमि कहे जाने वाले चंबा के भरमौर से आये कलाकारों ने लुभाया गद्दी नृत्य से
हिमाचल से आये गद्दी समुदाय के कलाकारों ने गद्दी लोक नृत्य की सुंदर प्रस्तुति की। यह लोक नृत्य भगवान शिव की आराधना पर आधारित है। हिमाचल के चंबा के भरमौर क्षेत्र को शिव भूमि के नाम से भी जाना जाता है। इस नृत्य की खासियत गद्दी समुदाय के लोगों की वेशभूषा रही। इस समुदाय का मूल कार्य खेती बाड़ी और भेड़ पालना है। पुरुष कलाकारों ने ऊन से बना चोला पहना था और सिर पर खास तरह की हिमाचली टोपी पहनी थी। महिलाओं ने भी ऊन के वस्त्र पहने थे। उनके सिर पर दुपट्टा था और वे चाँदी के आभूषणों से सजी हुई थीं। सबसे खास बात यह है कि इनके लाकेट में शिव जी की आकृति बनी हुई थी। यह नृत्य भगवान शिव की आराधना का नृत्य है। उल्लेखनीय है कि हिमाचल के लोकजीवन में भगवान शिव से संबंधित अनेक अनुश्रुतियां प्रचलित हैं और समय समय पर मेलों और त्योहारों के माध्यम से इनका प्रदर्शन होता रहता है। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के दौरान इनकी खास झलक देखने में आई। लोगों ने हिमाचली संस्कृति के इस रंग को खूब सराहा। विशेष रूप से खास हिमाचली पोशाक में आये कलाकारों से खासे प्रभावित हुए। नृत्य की खास विशेषता इसके वाद्ययंत्र घड़ाथाली और रणसिंगा से विशेष रूप से उभर कर सामने आई और लोगों ने इसका खासा आनंद लिया।
– हिमाचल प्रदेश हिम का आँचल अपनी खूबसूरती वह संस्कृति के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। हिमाचल के चंबा जिला के भरमौर क्षेत्र जो की शिव भूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ के गद्दी समुदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला गद्दी लोक नृत्य अपनी एक अलग पहचान रखता है।
गद्दी लोक नृत्य शिव कि आराधना (नवाला) के पश्चात व खुशी के किसी भी अवसर मेलों और त्योहारों के दौरान किया जाता है।
गद्दी समुदाय का मुख्य पेशा खेती बाड़ी व भेड़ पालना है। इसमें पुरूष भेड़ कि ऊन से बना चौला, डोरा व सिर पर पगड़ी / टॉप व स्त्रिया लुआचडी ऊंनी डोरा व सिर पर दुपट्टा व चांदी के आभूषण पहनती है।
यह नृत्य लोक गीतों पर किया जाता है। इसमें बनने वाले वाध्ययंत्र बांसुरी, डोल, नगाड़ा, काहल, घड़ाथाली व रणसिंगा है।
मौसम के बदलते रंगों के साथ असमिया जनजीवन में घुलता है बागदोईशीखला नृत्य का रंग
हर आने वाले मौसम का स्वागत असम में खास तरीके से होता है। यहां के बोड़ो जनजाति के कलाकार संधिकाल में जुटते हैं और बागदोईशीखला नृत्य करते हैं। मौसम के परिवर्तन के अवसर पर होने वाला देश का यह अपने तरह का दुर्लभ नृत्य है। इसमें बदलते मौसम के अनुरूप मन में आए उत्साह के भाव कलाकार अपनी मुखमुद्रा से और आंगिक अभिव्यक्ति के माध्यम से करते हैं। बोड़ो जनजाति में बागदोईशीखला शब्द तीन अलग अलग शब्दों से मिलकर बना है। बाग के मायने हैं जल, दोई के मायने वायु और शीखला के मायने हैं नारी। कृषक संस्कृति के लिए जल और वायु वरदान हैं। परंपरा के अनुसार जल और वायु की अनुकूलता जीवन को समृद्ध करती है अतः यह इनके उत्सव का नृत्य है। चूंकि यह उत्सव स्त्रियों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है अतः इसमें शीखला शब्द भी जुड़ गया है। आज राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में इस नृत्य की खास झलक मिली। चटख असमिया रंगों में और वाद्ययंत्रों के साथ असम से आये बोड़ो कलाकारों ने इस सुंदर नृत्य को प्रस्तुत किया। उनके आकर्षक असमिया परिधान ने लोगों को काफी लुभाया। साथ ही खास वाद्ययंत्रों की मधुर ध्वनि से कदमताल मिलाते पदचाप ने इस नृत्य के आनंद से लोगों को खूब सराबोर किया।
लोक कलाकार असम के बागदोई शीखला नृत्य प्रस्तुत कर रहे हैं
लोक कलाकार असम के बागदोई शीखला नृत्य प्रस्तुत कर रहे हैं। बोड़ो जनजाति कृषि आधारित विषय पर करते हैं।
– बाग दोई शीखला तीन शब्दों के मेल से बना है जिनमें ’’बाग’’ का अर्थ ’’वायु”, “दोइ’’ का अर्थ “जल” एवं “शिख ला” का अर्थ “युवती” होता है।
– यह बोड़ो जनजाति का लोकनृत्य है, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी बोड़ो जनजाति द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है और इससे संबंधित संस्कारों को आगे बढ़ाया जा रहा हैं।
– यह नृत्य खास मौसम परिवर्तन पर प्रस्तुत किया जाता है। बैशाख के माह में यह नृत्य उत्सव करने प्रथा रही है।
– असम का यह लोकनृत्य जल और वायु के देवता की अराधना और भक्ति का प्रतीक है।
मछली पकड़ना उत्सव की तरह, ला ली लांग नृत्य के माध्यम से प्रस्तुति दी असमिया कलाकारों ने
मछलियां पकड़ने के लिए जब समूह में एकत्रित होते हैं तो सामूहिक जोश की अभिव्यक्ति होती है। असम में इसे सुंदर नृत्य रूप दिया गया है। परंपरा से यहां के लोग ला ली लांग नृत्य के माध्यम से इसे अभिव्यक्त करते हैं। कलाकारों के हाथ में मछली पकड़ने के जाल और टोकरियां होती हैं। फिर किस तरह से मछली का जाल पूरे तालाब में फैला दिया जाता है। इसे डालने से लेकर खींचने तक की मेहनत और हुनर को इस सुंदर लोक कला में दिखलाया गया है। ला ली लांग नृत्य का आयोजन असम के टेवा समुदाय द्वारा किया जाता है। यह खास आयोजन फसल कटाई के मौके पर किया जाता है। स्थानीय असमिया परिधानों में सजे हुए कलाकार ढोलक की थाप पर यह नृत्य करते हैं। साथ ही इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत भी गाते हैं। पूरा नृत्य दर्शकों को उत्साह से भर देता है और मछलियों के सामूहिक आखेट का दृश्य आँखों के सामने ला देता है।
इस नृत्य के माध्यम से मत्स्याखेट की खास असमिया सामग्री भी दर्शकों को दिखती है। यह सामग्री बाँस से बनी टोकरियां हैं। इस नृत्य की खास बात नर्तकों के उत्साह में नजर आती है। मत्स्याखेट में सामूहिक श्रम और उत्साह काम आता है। समूह के द्वारा जब यह कार्य किया जाता है तो सामूहिक सहयोग से संभव हो पाता है। ला ली लांग नृत्य पूरे दृश्य को साकार कर देता है। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में इस सुंदर नृत्य करने वाले कलाकारों को लोगों ने खूब सराहा।
राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के अन्तिम दिन असम के नर्तक दल ने दी ‘ला ली लांग’ लोक नृत्य की शानदार प्रस्तुति
राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के अन्तिम दिन असम के नर्तक दल ने दी ला ली लांग लोक नृत्य की शानदार प्रस्तुति। यह नृत्य असम के टेवा समुदाय के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है। यह त्यौहार फसल कटाई से जुड़ा हुआ है और मछली पकड़ने के उत्सव के दौरान इसे किया जाता है। मुख्य रूप से उपयोग किए जाने वाले संगीत वाद्ययंत्र ढोलक हैं।
हरियाणा के घूमर नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति से झूम उठे दर्शक
राजधानी रायपुर के साइंस कॉलेज स्थित मैदान में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव एवं राज्योत्सव के अंतिम दिन हरियाणा के लोक कलाकारों ने घूमर नृत्य की प्रस्तुति सहित दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। घूमर नृत्य हरियाणा का एक अनोखा पारंपरिक लोक नृत्य है। नर्तक दल के लीडर सुनील कौशिक ने बताया कि यह नृत्य राज्य के पश्चिमी हिस्सों में लोकप्रिय है। इस नृत्य में नृत्यांगनाओं के वृत्ताकार आंदोलन इ/स नृत्य को अलग पहचान देते हैं। आमतौर पर राज्य के सीमा क्षेत्र की लड़कियां घूमर का प्रदर्शन करती हैं। नर्तक, जो एक परिपत्र मोड लेते हैं और ताली बजाने और गाने के बारे में आगे बढ़ते हैं, इस नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। लड़कियाँ गाती हैं जब वे एक घूमने वाले आंदोलन में नृत्य करती हैं और संगीत के गति के रूप में लड़कियों के जोड़े बढ़ते हैं और तेज़ी से और तेज़ी से घूमते हैं। साथ के गीत व्यंग्य, हास्य और समकालीन घटनाओं से भरे हुए हैं, जबकि नर्तक जोड़े में घूमते हैं। यह नृत्य होली, गणगौर पूजा और तीज जैसे त्योहारों के अवसर पर किया जाता है।
यह भील जनजाति का लोक नृत्य है।यह नृत्य फसल की कटाई के समय किया जाता है।यह एक समूह नृत्य है ।यह नृत्य विशेष अवसर पर किया जाता है।यह नृत्य फसल कटाई के बाद, फसल अच्छे दामों पर बिकने बाद किया जाती है पत्नि अपने पति से विभिन्न तरीके से भिन्न-भिन्न वस्तुओं की मांग करती है और वार्तालाप के माध्यम से इस घुमर नृत्य को प्रस्तुत किया जाता है।
इसी खुशी के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है।
हमारे सुआ नृत्य की तरह ही उत्तरप्रदेश का है झींझी नृत्य
दीपावली के शुभ अवसर पर छत्तीसगढ़ में महिलाएं घर-घर जाकर सुआ नृत्य करती हैं उसी प्रकार उत्तर प्रदेश में थारू जनजाति भी झींझी देवी की आराधना में ऐसा नृत्य क्वांर और भादो के महीने में करती हैं। नई फसल आने के तुरंत बाद महिलाएं झींझी नृत्य करने घर घर जाती हैं। उनके सिर में कलश होता है और हाथों में दान लेने के लिए टोकरी। फिर सुआ गीत की तरह ही सुंदर गीत प्रस्तुत करती हैं और सुंदर झींझी नृत्य भी। बिल्कुल चटख रंगों के साथ और स्थानीय थारू आभूषणों के साथ उनकी साजसज्जा दर्शकों को चकित कर देती है। इसके बाद परंपरा अनुरूप झींझी का विसर्जन नदी में किया जाता है।
इस सुंदर नृत्य को देखकर बहुत से लोगों ने इसकी तुलना छत्तीसगढ़ के सुआ नृत्य से की और दोनों में जो अंतर हैं उनके बारे में चर्चा करने लगे।
राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के माध्यम से देश भर में चर्चित नृत्य के रूपों को दिखाने का शानदार मंच रायपुर में लोक कलाकारों को मिला है। इनमें से बहुत से नृत्य हमारी समृद्ध कृषक संस्कृति को दिखाते हैं। हमारी कृषक संस्कृति में श्रम के साथ दानशीलता की भी सुंदर परंपरा है। यह सुंदर परंपरा सुआ नृत्य में भी देखने को मिलती है और झींझी नृत्य में भी।
झारखंड की समृद्ध परंपरा नजर आई ’हो’ नृत्य में, प्रकृति के प्रति आस्था का प्रतीक है यह नृत्य
राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में पड़ोसी राज्य झारखंड के कलाकारों ने ’हो नृत्य’ के माध्यम से समां बांध दिया। झारखंड का यह नृत्य प्रकृति के प्रति लोगों की गहरी आस्था का प्रतीक है। हो नृत्य के माध्यम से जनजातीय कलाकार लोकजीवन की समृद्धि और उन्नति की कामना करते हैं। इस नृत्य में पुरुष कलाकारों ने श्वेत वस्त्र पहने थे और महिला कलाकारों ने झारखंड में प्रचलित साड़ी पहनी थी। सिर पर मोरपंख लगे थे और हाथों में मृदंग था। मांदर के थापों में नृत्यरत कलाकार प्रकृति की अद्भुत लय प्रस्तुत कर रहे थे।
मांदर की थाप के साथ कलाकारों की पदचाप बहुत अच्छी लग रही थी। झारखंड के इन कलाकारों के वस्त्रों में रंग चटखीले नहीं थे लेकिन इन्हें पहनने का खास तरीका और कलाकारों की अद्भुत सजावट और स्थानीय आभूषण कलाकारों की कला की चमक में चार चाँद लगा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि झारखंड का लोकजीवन बहुत ही समृद्ध है और हो नृत्य के माध्यम से वहां की खास परंपराओं की झलक भी कलाकारों ने दिखाई।
कोंकण की संस्कृति की झलक दिखी कुनबी नृत्य में, सादे वस्त्रों में सुरुचिपूर्ण नृत्य
पांच शताब्दियों से अधिक पुर्तगाली प्रभाव के बावजूद गोआ के लोगों ने अपनी परंपरा सहेज कर रखी है और इसे खूबसूरत तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में आज कोंकण क्षेत्र में प्रचलित कुनबी नृत्य का प्रदर्शन किया गया। इस कुनबी नृत्य में महिलाओं ने कृषि संस्कृति से जुड़ी दिनचर्या प्रदर्शित की। इस नृत्य की विशेषता इसकी द्रुत गति है।
यह नृत्य कुछ ऐसा है जिसमें कलाकार अपनी दिनचर्या के कामों को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें वे खासी रुचि लेते हुए अपने काम में आनंद ले रहे हैं। इसके साथ ही इन कलाकारों की साजसज्जा भी खास दिख रही है। कोंकण क्षेत्र में प्रचलित वेणी और श्रृंगार को उन्होंने प्रदर्शित किया है। कोंकण क्षेत्र में प्रचलित वाद्ययंत्रों के साथ इन नृत्यों की सुंदर प्रस्तुति दी गई। वाद्ययंत्रों की धुनों में कलाकारों ने सुंदर प्रस्तुति दी। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के माध्यम से छत्तीसगढ़ में देश के विविध प्रांतों के लोकनृत्यों का सुंदर वैविध्य एक ही स्थान पर नजर आ रहा है और लोग इसे काफी रुचि से देख रहे हैं।
कुनबी नृत्य गोवा के बसने वाले कुनबी, मुख्य रूप से यहां के प्रांत में बसे एक आदिवासी समुदाय हैं,जो यहाँ की सबसे प्राचीन लोक परंपरा को सरंक्षित रखता है।
कुनबी महिलाओं के नर्तकों के एक समूह द्वारा किया जाने वाला तेज और सुरुचिपूर्ण नृत्य, पारंपरिक लेकिन साधारण पोशाक पहने हुए यह जातीय कला के रूप में एक सन्देश है।यह महिलाओं द्वारा किये जाने वाले सामुहिक नृत्य है।
पिरामिड के अद्भुत संतुलन पर शानदार नृत्य, राठवां नृत्य जिसने देखा कलाकारों के कौशल को देखकर दांतों तले ऊंगली दबा ली
गुजरात के लोक कलाकारों द्वारा दिखाया गया राठवां नृत्य जिसने भी देखा, कलाकारों की प्रतिभा को देखकर चकित रह गया। शारीरिक संतुलन की ऐसी प्रतिभा का प्रदर्शन अमूमन सैन्य परेड में जवानों द्वारा किया जाता है लेकिन यहां कलाकारों ने अपनी शारीरिक लोच से अद्भुत रूप से पिरामिड बनाये। यही नहीं, इन अलग अलग कलाकृति के पिरामिडों में आंगिक अभिव्यक्ति की। इस तरह का संतुलन और हाव भाव की प्रस्तुति ऐसी थी कि सभी का मन इन लोक कलाकारों ने मोह लिया। खूबसूरत गुजराती परिधानों में इन कलाकारों की कला की खूबसूरती और भी निखर गई थी।
राठवां नृत्य का एक दृश्य बेहद खास रहा जिसमें कलाकारों ने इस तरह से अपनी पोजीशन बनाई कि लगा कोई देवी या राजपरिवार की कोई सदस्य है जिनका रथ जा रहा है और लोक कलाकार उत्सव से भरे हुए इस रथ को आगे ले जा रहे हैं और जुलूस में शामिल लोग झूम रहे हैं। खास तरह की सजावट ने इस नृत्य को रंगीन कर दिया। गुजराती वेशभूषा और आभूषणों की झलक भी इस नृत्य में दिखी। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आदिवासी कला महोत्सव का आज तीसरा दिन है और लोगों की काफी भीड़ विभिन्न राज्यों के नृत्य देखने जुट रही है।
आदिवासियों की एक जनजाति है राठवां, जो मूल रूप से गुजरात के उदयपुर जिले में रहते हैं। इस जनजाति का एक खास लोक नृत्य है, जिसे ‘राठवां नृत्य’ के नाम से जाना जाता है। कभी अपने क्षेत्र विशेष में सिमटा इनका यह डांस कुछ वर्षों से समूचे देश में विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए विशेष पहचान बना चुका है। एक बार इस लोकनृत्य को देखने वाला इस कला का मुरीद होता है। यहाँ इनकी आकर्षक प्रस्तुति दी गयी।
आंध्रप्रदेश की टीम द्वारा लंबाड़ी नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति
आंध्र प्रदेश का लंबाड़ी नृत्य आकर्षक चटकदार रंग बिरंगी परिधानों से सुसज्जित होकर यहां की महिलाओं द्वारा किया जाता है। वे एक घुम्मकड़ जनजातिय से सम्बद्ध रखते हैं।
लंबाड़ी नृत्य में वेश भूषा में कांच,दर्पण के टुकड़ों का उपयोग करते हैं। हाथी दांत की चूड़ियाँ ,कलाई की शोभा बढ़ाती हैं।कृषि में जब समृद्धि आती है।तब खुशी से महिलाएँ यह नृत्य करती हैं।
कलाकारों में ग़जब का उत्साह दूसरे कलाकारों के प्रदर्शन पर उनका उत्साह भी बढ़ा रहे।कलाकारों में ग़जब का उत्साह दूसरे कलाकारों के प्रदर्शन पर उनका उत्साह भी बढ़ा रहे।
फसल कटाई का उत्सव है सैलाम नृत्य, वाद्ययंत्रों के साथ रंगबिरंगे परिधानों से मनाया जाता है उत्सव
फसल की कटाई का मौका कितना खूबसूरत होता है और कितना उमंग से भरा, राष्ट्रीय आदिवासी महोत्सव में सैलाम नृत्य कर रहे लोककलाकारों ने यह सुंदर दृश्य अपने नृत्य से प्रस्तुत कर दिया। ये मध्यप्रदेश के सागर से आये लोककलाकार थे। चटख रंग वाले परिधानों से सजे हरे-लाल वस्त्रों के साथ लोककलाकारों ने जब अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया तो सचमुच फसल कटाई का उत्सव आंखों के सामने साकार हो गया। इसके साथ ही बांसुरी की धुन और नगाड़े की थाप ने अद्भुत संगीत पैदा किया। इस संगीत की लय में थिरकते लोक कलाकारों के पदचाप से समूचा परिदृश्य जादूई हो गया।
नृत्य की खूबसूरती में कलाकारों की सजावट ने चार चाँद लगा दिये। कलाकारों ने परंपरागत वस्त्र पहने थे। बेहद खूबसूरत इन वस्त्रों के साथ ही परंपरागत आभूषणों की सुंदरता ने लोगों का मन मोह लिया।
सैताम नृत्य फसल कटाई के सीजन में बहुत लोकप्रिय है और लोक उत्सव को प्रकट करने का अंचल के लोगों का अपना खास तरीका है। पूरे नृत्य में कलाकारों की जो जुगलबंदी दिखी, वो अद्भुत रही। लोगों ने इस नृत्य को बहुत सराहा।