खजुराहो नृत्य समारोह के अवसर पर जारी होगा पत्रिका ‘रंग संवाद’ का विशेषांक

इंडिया एज न्यूज नेटवर्क
भोपाल : टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र की पुरस्कृत सांस्कृतिक पत्रिका ‘रंग संवाद’ का विशेषांक खजुराहो नृत्य समारोह के अवसर पर 20 फरवरी को जारी होगा। यह अंक भारतीय कलाओं के संदर्भ में परम्परा, प्रयोग और नवाचार पर केन्द्रित है।
इस नए संस्करण में संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता, आलोचक तथा कलाकारों के आलेख, संवाद, रिपोर्ताज तथा कलाकृतियों का समावेश किया गया है। विगत बारह वर्षों से इस पत्रिका का नियमित किया जा रहा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स नई दिल्ली द्वारा लगातार दो वर्षों से ‘रंग संवाद’ को उत्कृष्ट पत्रिका के रूप में चयनित और सम्मानित किया गया है।
भारत सहित दुनिया के तीस देशों में ‘रंग संवाद’ का प्रसार है। सौ से भी ज़्यादा पृष्ठों के इस समृद्ध अंक (फरवरी-2023) का कलात्मक आवरण वरिष्ठ फोटोग्राफर रज़ा मावल के छायांकन से सुसज्जित है। अशोक भौमिक, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, श्यामसुन्दर दुबे, राजेश व्यास, नरेन्द्र नागदेव, निर्मला डोसी, शंपा शाह, स्वरांगी साने, अनुलता राज नायर, स्नेहा कामरा, सुदीप सोहनी, संजय सिंह राठौर, विवेक सावरीकर, आलोका सेठी, पाँखुरी जोशी तथा शाम्भवी शुक्ला आदि के अग्रलेख सांस्कृतिक विमर्श की नई दिशाएँ खोलते हैं।
‘रंग संवाद’ के प्रधान सम्पादक संतोष चौबे की सारगर्भित टिप्पणी परम्परा के प्रवाह में कलाओं की परस्परता और मानवीय मूल्यों पर गहरी नज़र डालती है। सम्पादक विनय उपाध्याय के अनुसार ‘रंग संवाद’ का यह अंक इस आग्रह के साथ परिकल्पित है कि परम्परा का मूल्यांकन हम खुली नज़र से करें। देखें कि सभ्यता के विकास में मनुष्य पर उसके प्रभाव क्या रहे हैं? यह भी कि बहुलता का मान रखने वाली सांस्कृतिक आस्था का चेहरा आधुनिकता के बरअक्स कैसा है? दौड़, होड़, वर्चस्व और रिझाने के बाजारू समय में हमारी देशज कलाओं का वजूद कितना बाक़ी है?
इस अंक की विशेष उपलब्धि है प्रख्यात लोक गायिका मालिनी अवस्थी से अनुलता नायर की ख़ास बातचीत जो सपनों. संघर्षों और शोहरत से गुजरती एक नायाब शख्सियत के पोशीदा पहलुओं को परत-दर-परत खोलती है। हिन्दी के वरिष्ठ निबंधकार-चिंतक श्यामसुंदर दुबे परम्परा को अनुभव की प्रयोगशाला मानते हुए लोक मूल्यों के बचे रहने की कामना से भरे हैं। कला चिंतक राजेश कुमार व्यास संस्कृति की विशद व्याख्या करते हुए कला की विभिन्न विधाओं का संदर्भ लेते हैं। कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों की गहरी मीमांसा से गुजरते हुए साहित्य और संस्कृति के प्रकाण्ड मनीषी नर्मदाप्रसाद उपाध्याय भारत के लघु चित्रों के दीप्त इतिहास के अध्याय खोलते हैं। लेखक नरेन्द्र नागदेव चित्रों में अमूर्तन को ठीक से देखने-समझने का मशविरा देते हैं। चित्रकार-कलागुरु अशोक भौमिक भारतीय चित्रकला के मर्म को स्पर्श करते हैं। शिल्पकार शंपा शाह जनजातीय कलाकारों की स्मृति और संवाद के हवाले से आधुनिकता के सामने उनकी मौलिकता का सच उद्घाटित करती हैं।
पारम्परिक कलाओं की गहरी जानकार लेखिका निर्मला डोसी हस्तकलाओं के साथ जुड़े हुनर को देखते हुए जीवन, प्रकृति और संस्कृति के बीच उनके रचनात्मक सरोकारों की पड़ताल करती हैं। कवि-कलाकार विवेक सावरीकर ने गुरुपरम्परा में दीक्षित नर्तकों से प्रयोग पर महत्वपूर्ण वार्ता की है। पाँखुरी वक़्त जोशी संस्कृत रंगमंच की महिमा को कमलेशदत्त त्रिपाठी और राधावल्लभ त्रिपाठी सरीखे नाट्य शास्त्र के ज्ञाताओं के जरिये रेखांकित कर रही हैं। प्रसिद्ध रंगकर्मी आलोक चटर्जी रंगभूमि पर हो रहे नए प्रयोगों का जायजा लेते हुए गुणवत्ता की कसौटी पर खरी टिप्पणी करते हैं।
इस अंक में कला समीक्षक राजेश गनोदवाले, स्नेहा कामरा, स्वरांगी साने और शाम्भवी शुक्ला के आलेख संगीत की आधारभूत जानकारियाँ साझा करते हुए नवाचारों के कोनों में उठ रही अलक्षित आवाज़ों से हमारा परिचय कराते हैं। इस श्रृंखला में क्रान्तिकारी गायक पं. कुमार गन्धर्व से संगीत समीक्षक मुकेश गर्ग की बेबाक बातचीत, विचार और प्रयोग के नए द्वार खोलती है। युवा लेखक-सिनेकर्मी सुदीप सोहनी और संजय सिंह राठौर ने चित्रपट पर परिवर्तन की पदचाप को सुनते हुए उसका रोचक ब्योरा पेश किया है। एक कोना साहित्यकार-उद्योगपति आलोक सेठी की उस टिप्पणी से रौशन है जहाँ वे भाषा की चिन्ता कर रहे हैं।