14 दलों को आत्मचिंतन की जरूरत

के. विक्रम राव

विपक्ष के जिन 14 दलों की याचिका उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दी, उनके सब पुरोधाओं को डा. राममनोहर लोहिया का लेख: ‘निराशा के कर्तव्य’ को मन लगाकर पढऩा चाहिए। (पृष्ठ 250-280: ‘लोहिया संचयिता’ (प्रकाशक: अनामिका, 21-ए अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली)। लेखक द्वय: प्रदीप कुमार सिंह और के. विक्र म राव)। तब वे आशावान हो जाएंगे।

इसका खास अंश है जहां डा. लोहिया लिखते हैं: ‘राष्ट्रीय निराशा पर पिछले 1500 बरस में हिंदुस्तान की जनता ने एक बार भी किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं किया। यह कोई मामूली चीज नहीं है। इस पर लोगों ने कम ध्यान दिया है। कोई विदेशी हमलावर आए, उस वक्त यहां का देशी राज्य मुकाबला करे, वह बात भी अलग है। एक राजा जो अंदरूनी बन चुका है, देश का बन चुका है लेकिन जालिम है, उसके खिलाफ जनता का विद्रोह नहीं हुआ यानी ऐसा विद्रोह जिसमें हजारों, लाखों हिस्सा लेते हैं, बगावत करते हैं। कानून तोड़ते हैं, इमारतों वगैरह को तोड़ते हैं या उन पर कब्जा करते हैं, जालिम को गिरफ्तार करते हैं, फांसी पर लटका देते हैं। ये बातें पिछले 1500 बरस में हिंदुस्तान में नहीं हुईं।

मगर इन 14 दलों के नेताओं को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरोप का तार्किक उत्तर देना होगा। मोदीजी ने कहा कि उनके खिलाफ सारे भ्रष्टाचारी एक हो गए हैं अर्थात जब तक ठोस जवाब नहीं होगा, उच्चतम न्यायालय का यह तर्क वैध रहेगा कि प्रतिपक्ष के इन दलों के पास भाजपा सरकार द्वारा विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसियों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने का आरोप पुख्ता नहीं है। उदाहरणार्थ कांग्रेस के मां-बेटे स्वयं बेल पर हैं, जेल से बचे हुए हैं।

हालांकि यह सत्य है कि ये 14 दल करीब 42 प्रतिशत मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह भी दुरुस्त है कि इनमें से 108 नेताओं के विरुद्ध जांच चल रही है। इस पर उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ तथा जेबी पारदीवाला ने स्पष्ट कहा, ‘नेताओं को आम नागरिकों की तुलना में अधिक छूट नहीं मिलती। एक बार जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि नेता भी आम नागरिकों के बराबर हैं और उन्हें अधिक रियायत नहीं है तो हम कैसे कह सकते हैं की तब तक कोई गिरफ्तारी नहीं हो सकती।’ पीठ ने कहा, ‘आप कृपया तब हमारे पास आयें, जब आपके पास कोई व्यक्तिगत अपराधिक मामला या मामले हों।’ पीठ के लिए किसी मामले के तथ्यों की जांच के बिना सामान्य दिशा निर्देश देना खतरनाक होगा।

गौरतलब है कि इन 14 दलों में दस तो ऐसे हैं जिनके नेताओं पर गंभीरता से आर्थिक अपराधों की गहन पड़ताल चल रही है। इनमें खास हैं लालू यादव का परिवार (राजद), तृणमूल कांग्रेस (बंगाल), आम आदमी पार्टी (मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन- अधुना तिहाड़ जेल में), जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस (फारुख अब्दुल्ला), समाजवादी पार्टी, डीएमके, भारतीय राष्ट्रीय समिति (सीएम चंद्रशेखर राव की पुत्री कविता), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (प्रफुल पटेल) इत्यादि। इन शीर्ष नेताओं को त्वरित धनी बनने की लिप्सा तजनी चाहिए थी क्योंकि वे राजसत्ता के भोगी रहे हैं। मेरी मातृभाषा तेलुगू में कहावत है कि ताड़ के पेड़ के नीचे दूध मत पियो क्योंकि सफेद रंग से ताड़ी होने का भ्रम हो जाएगा।

सत्तासीन को यूं भी सतर्क रहना चाहिए। वे काजल की कोठरी में हैं। सजायाफ्ता नेता लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल को तो कतई याचिकाकर्ताओं में शामिल नहीं करना चाहिए था। वे तो भ्रष्टाचार की जीवंत प्रतिमा हैं। गोपालक जाति के इस शीर्ष अभियुक्त की पार्टी को याचिका में शामिल करने के मायने हैं कि वृंदावन के कृष्ण मंदिर में विप्र पुजारी द्वारा गौ हत्या कराना।

इन नेताओं ने संसद को ही अपने हेतु रणभूमि बनाया है। वोटरों ने इन्हें चुना है कि संसद में जनहितकारी काम हो, राहुल गांधी के निजी एजेंडा का पुरजोर क्रि यान्वय करने हेतु नहीं। इन विपक्षी नेताओं को याद रखना होगा कि लोहिया का खास सूत्र है, ‘यदि सड़क खामोश हो गई तो संसद आवारा हो जाएगी।’
अंतर्मुखी होकर इन विपक्षी नेताओं का मनन करना चाहिए कि कितने सालों पूर्व उन्होंने जनसंघर्ष किया था। कब जेल गए थे ? पुलिस की बर्बरता कितनी झेली थी ? लालू यादव ने तो जेपी आंदोलन के बाद कोई भी संघर्ष किया ही नहीं। हास्यस्पद लगता था जब लालू यादव चारा घोटाले में जेल से बेल पर छूट कर बाहर आते थे तो हाथ हिलाते हुए। नीतीश कुमार के ही शब्दों में ‘वे मानों स्वाधीनता सेनानी हों।’ झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन पर भी आरोप है। उनके पिताश्री स्वनामधन्य शिबु सोरेन तो कदाचार में जगविख्यात थे।

कानून का एक बुनियादी सिद्धांत है कि न्यायार्थी को साफ हाथों से अदालत में आना चाहिए। अत: सभी याचिकाकर्ताओं को इस पर खासकर आत्म चिंतन करना चाहिए था। अंत में डा. लोहिया के ही सूत्र का उल्लेख कर दूं, ‘यदि अच्छे लोग अच्छे तरीकों से बुरी बात का विरोध नहीं करेंगे तो फिर बुरे लोग बुरे तरीकों से विरोध करेंगे। तब जनता उन्हीं के पीछे हो जाएगी।’ इसीलिए अब मार्ग चयन की अधिक गुंजाइश है नहीं।

India Edge News Desk

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