ऐसी भी कैसी मदांधता, तृष्णा मदिरा के प्रति ?

के. विक्रम राव

कोको अब स्वस्थ हो रहा है। उसकी शराब की लत कमजोर हो रही है। चस्का छूट रहा है। यह दो-वर्षीय लेब्राडोर नस्ल का शिकारी कुत्ता अपने मालिक की तरह गत वर्षों में पियक्कड़ हो गया था। उसका शराबी मालिक रोज खुद दारू पीता और उसको भी पिलाता था। कई सालों से ऐसा चल रहा था। लत ऐसी लगी कि शराब के बिना कुत्ते का जीना मुश्किल था। फिर एक दिन मालिक की मौत हो गई मगर दक्षिण इंग्लैंड के सागर तटीय नगर प्लाईमाउथ के पशु कल्याण न्यास ने अमेरिकी साप्ताहिक – ‘न्यूजवीक‘ को बताया कि कोको शांत है। मदिरा की लत से मुक्ति पानेवाला पहला कुकुर बन गया है। ‘न्यूजवीक‘ के प्रबंधक हैं तेलुगुभाषी देव प्रगड।

इस कोको का किस्सा पढ़कर मुझे लगा कि मेरे पेशेवर पियक्कड़ साथी भी सुधर सकते हैं। पहला सुझाव तो मेरा यही होगा कि भारत के सारे प्रेस क्लब नशामुक्ति प्रशिक्षण केंद्र बन जाएं। तब पत्राकारों के पीड़ित परिवारों का कल्याण हो जाएगा। मैंने चालीस-पैंतालीस साल के युवा साथियों को जिगर तथा हृदय के रोग से तड़पते और मरते देखा है। वे सदैव शराब को घूंट अथवा चुस्की में नहीं वरन एक ही सांस में ही गटक जाते रहे। उनके मदिरापान के बहाने भी बस विलक्षण ही होते हैं।

एक पत्रकार ने बताया कि हरिवंशराय बच्चन की ‘मधुशाला‘ में वर्णित शराब की खासियत जानकर, गाकर, उन लोगों ने ठर्रे से इब्तिदा की थी। बाद में विलायती से आचमन करने लगे। एक किस्सा मुझे प्रयागराज के उच्चकुल में जन्मे ईश्वरभक्त शिक्षक ने बताया। वे बोले कि ‘पंडित आदित्यनाथ झा, पद्मविभूषण (1972) और आई.सी.एस. (1936), संस्कृत के विद्वान थे। उनसे एक ने पूछा कि विप्रकुल के होकर भी आप मदिरापान क्यों करते हैं ? उनका उत्तर चकित करने वाला था। उन्होंने एक प्याला मंगवाया। उसमें संगम के गंगाजल की कुछ बूंदंे डाली, फिर विदेशी विहस्की डाली। तब बोले, ‘गंगाजल में जो भी गंदा पानी अथवा कचरा पड़ता है, सब गंगाजल जैसा पवित्रा हो जाता है। अतः यह शराब भी गंगा की बूंद का सानिध्य पाकर पवित्रा हो गईं हैं।‘ ऐसा कहना या मानना घोर विकृति है। मेरी राय में गंदा मखौल है। किसी भी मदिरा को गंगोत्राी का पवित्रातम जल भी कभी भी शुद्ध नहीं कर सकता है। गंगा जल भी दूषित हो जाएगा।

लब्बे लुआब यही कि मद्यपान में पहले मजा आता है, फिर घृणा सर्जती है, आखिर में पश्चाताप। अतः प्रथम अवस्था में ही अवरुद्ध करना पड़ेगा। इसी भावना को अत्यधिक कटु शब्दों में इंग्लिश साहित्यकार जोसेफ एडिसन ने लिखा था कि मद्य पहले उदासीनता को प्रेम में बदलता है, फिर ईष्र्या में और अंत में मूढ़ बना देता है। जैसा कुरान पाक में लिखा है कि अंगूर की हर बेरी में शैतान बसता है। फिर भी उर्दू शायरी बिना शराब के वैसे होगी जैसे पेट्रोल के बिना मोटर गाड़ी अर्थात शराब न हो तो शायरी खत्म। शराब पर कहां तक टिकेगी कविता ?

एक खतरा और है। अत्यधिक शराब पीने से पुरानी बीमारियों की गंभीर समस्या पैदा हो सकती हैं। इनमें शामिल हैं उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, स्ट्रोक, यकृत रोग और पाचन संबंधी समस्याएं। स्तन, मुंह, गले, अन्नप्रणाली, आवाज बाक्स, यकृत, बृहदांत्रा और मलाशय का कैंसर। याददाश्त की कमजोरी तो पत्राकार के लिए अत्यंत घातक है। खाक लिख पाएगा जब सब भूल जाएगा।

एक विरोधाभासी सरकारी नीति भी अत्यंत विषादजनक है। दोनो विभाग आबकारी और मद्यनिषेध साथ साथ कैसे कारगर हो सकते हैं ? एक खास घटना राजधानी रायपुर में कांग्रेस पार्टी के 85वें अधिवेशन में (26 फरवरी 2022) में हुई थी। इस गांधीवादी दल ने अपने सारे सदस्यों को दारू से परहेज से मुक्ति दे दी। कांग्रेसी अब और शराब पी सकते हैं। निर्बाध, खुल्लम-खुल्ला, बेहिचक, बिना किसी लाग-लपेट या लिहाज के। उनके लिए अब खादी पहनना भी अनिवार्य नहीं है।

इन्हीं कांग्रेसियों में हुये थे ठेठ गांधीवादी स्वर्गीय प्रधानमंत्राी मोरारजीभाई देसाई आज भी बड़े भले लगते हैं। आजाद भारत के इतिहास में केवल मोरारजी देसाई के राज में ही मद्यनिषेध का असली अर्थ शराब-बंदी थी। तब वे अविभाजित मुंबई राज्य के गाँधीवादी मुख्य मंत्राी थे। सोवियत प्रधान मंत्राी बुल्गानिन और रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ख्रुश्चोव मुंबई आये। दोनों को मुख्य मंत्राी का निर्देश था कि शराब के लिए परमिट हेतु राज्य मद्यनिषेध अधीक्षक को दरख्वास्त दे दें पर ये दोनों रूसी मास्को से ही वोडका भरकर लाये थे। एक अन्य अवसर पर जब मोरारजी देसाई नेहरू काबीना में वित्त मंत्राी थे तो ब्रिटिश प्रधान मंत्राी मैकमिलन के सम्मान में दिल्ली स्थित उच्चायुक्त भवन में रात्रिभोज था। कोई भी शराब नहीं पी रहा था। होठों से केवल मौसमी के रस का गिलास सटा था। मोरारजी देसाई की शर्त थी कि यदि मदिरा परोसी गई तो वे भोज में शिरकत नहीं करेंगे। अटल बिहारी वाजपेयी के राज में माजरा भिन्न था। मदिरा अविरल बहती थी। मांसाहारी भोजन प्रचुर मात्रा में होता था। न परहेज, न लागलपेट।

शराबबंदी का अथक समर्थक होने के नाते अपनी विश्वयापी यात्रा के दौरान कई बार मैं धर्मसंकट में पड़ा पर साथियों की कृपा से बच गया। हर पत्राकार-अधिवेशन में (सभी छः महाद्वीपों के 51 राष्ट्रों में) जाम लड़ाना पड़ता था, आपसी दोस्ती के नाम पर मगर आफत से बचाए रहे आईडब्ल्यूजे के साथी हसीब सिद्दीकी और रवींद्र सिंह। वे पहले से ही कोकाकोला अथवा नारंगी रंग वाले पेय को उड़ेलकर गिलास पूरा भर देते थे। मैं मद्यपान के पाप से बच जाता था। खाने में बिना प्याज लहसुन का भोजन बनवा लेता था मगर हसीब सिद्दीकी बड़े चतुर निकलते। वे केवल मछली और अंडा पर ही निर्भर रहते थे। हलाल-झटका का झंझट ही नहीं होता था। फिलहाल मेरा सतत अभियान तो है तथा चलेगा भी कि सम्पूर्ण शराबबंदी न हो सके तो कम से कम नियंत्रित ही हो। जान तो खतरे में न पड़े। ऐसी भी कैसी मदांधता, तृष्णा मदिरा के प्रति ?

India Edge News Desk

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